बारिश – विकास नैनवाल ‘अंजान’ | कहानी

बारिश - विकास नैनवाल 'अंजान' | कहानी

यह कहानी 2021 में भावांकुर पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कहानी के विषय में उस वक्त मैंने यहीं पर कहानी की कहानी: बारिश नामक लेख में लिखा था। हाल में ही देखा कि पत्रिका की वेबसाईट में कुछ दिक्कत है और वहाँ कुछ नहीं चल रहा है तो सोचा उस कहानी को अपनी वेबसाईट पर जगह दे दूँ। 

उम्मीद है यह कहानी आपको पसंद आएगी। पढ़कर अपनी राय जरूर दीजिएगा। 

*****

मूसलाधार बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। आसमान पर बादल छाये हुए थे जिनके कारण दिन में ही अँधेरा होने लगा था। मैं ऑफिस से चाय पीने निकला था लेकिन अब दुकान में फँस कर रह गया था। अब इतनी तेज बारिश में वापस ऑफिस तक जाना बेवकूफी ही होती और मैं यह बेवकूफी करने के मूड में नहीं था। वैसे काफी बेवकूफियाँ मैं कर चुका था और उनका खामियाजा भुगत रहा था। जो काम ऑफिस से निकलते ही कर देना था वह तब न किया और उसके बाद करने की कोशिश की तो कोशिश कामयाब न हो सकी। ऊपर से यह बारिश सब गुड़ गोबर कर रही थी।नालियों से गंदा पानी बाहर को निकलने लगा था। छतों में मौजूद पाइप भी पानी ऐसे उगल रहे थे जैसे उल्टी  कर रहे हों और दुकान के कोने में भीड़ के बीच खड़ा मैं अपने को इस बहते पानी से बचाने की असफल कोशिश कर रहा था।

मैंने कुढ़ते हुए बिन बुलाये बारिश को दो चार गालियाँ बकी और चाय वाले को कहा – “एक समोसा पाव और एक कटिंग चाय देना” ये मेरी तीसरी कटिंग चाय थी।

“एक कटिंग चाय मुझे भी”, किसी की आवाज मेरे कानों में पड़ी तो लगा जैसे दुनिया ही रुक गयी है।

मैंने मुड़कर देखा तो वही थी। साक्षात मेरे सामने खड़ी मुस्करा रही थी।

“त…तुम इधर”, मैं हकलाते हुए सा बोला।

“ह…हाँ मैं इ…इधर”, वो मेरी नकल करते हुए बोली।

“तुम तो जाने वाली थी। इस्तीफा भी तुमने डाल दिया है।”

“हम्म… था तो सही ऐसा कुछ पर अब मैंने फैसला बदल दिया है।”

“मतलब अब नहीं जा रही?”

“हाँ, नहीं जा रही।”

“थैंक यू!! थैंक यू!!” मैं खुश होता सा बोला था।

“क्यों? मेरे न जाने से तुम क्यों थैंक यू बोल रहे हो।”

“वो… वो” मैं हकलाया।

“हाँ हाँ बोलो बोलो” वह मुस्कराती सी बोली

“मैं …..मैं”, मैं मिमिया रहा था कि तभी चाय वाले ने विघ्न डाला।

“साहब चाय और समोसा पाव और मैडम आपकी चाय!”

“शुक्रिया”, मैं जबरन मुस्कराता हुआ सा बोला। क्या एंट्री मारी थी लड़के ने।

“थैंक्स”, वो मेरे चेहरे पर आये झुंझलाहट के भाव देखकर मुस्कराती सी बोली।

लडका चला गया और हमें अकेला छोड़ गया।

“हाँ, अब बोलो क्या कह रहे थे?”

“मैंss”, मैं को तान की तरह खींचा।

वह केवल मुस्कराती हुई सी वहाँ पर खड़ी रही। उसकी आँखें मुझसे प्रश्न करती सी बोली।

मैंने अपने सूख रहे गले तो चाय की चुस्की से गीला किया और गहरी साँस ली और आँख बंद करके बोला- “यार मैं तुम्हे पसंद करता हूँ।”

अब मेरी दिल की धड़कन बढ़ सी गयी थी। मेरी आँखें बद्दस्तूर बंद थी और मैं उसके कुछ कहने का इन्तजार कर रहा था। कुछ देर तक कोई कुछ न बोला। मेरे दिल की घबराहट बड़ी और मैंने डरते डरते आँखें खोली तो उसे अपने को तकते हुए पाया।

उसने चाय की चुस्की ली और मुझे खुद की ओर देखता पा बोली- “तो इसीलिए मुझे आज यहाँ बुलाया था।”

“हाँ,” पर मुझे लगा तुम जा चुकी होगी। “तुम्हारा फोन भी बंद आ रहा था। मैंने कितना मिलाया।”

“हम्म.., मैं ऑफिस में फोन बंद रखती हूँ। वो मुझे देखती हुई बोली। जो काम था उसे करने में वक्त का पता ही नहीं चला और फिर जब काम खत्म हुआ तो मैं सीधे इधर आ गयी।”

“हम्म…”, मैंने उससे कहा और फिर उसकी तरफ तकता रहा।

उसने चाय का एक घूँट लिया और फिर बोली- “चाय अच्छी बनी है न?”

मैंने उसे आश्चर्य से देखा तो उसने नासमझ बनते हुए कहा- “एक और कटिंग चाय बोलो “

कटिंग चाय!! कटिंग चाय! मैंने मन ही मन सोचा। यहाँ मेरा दिल उछल कर मेरे हलक पर आ रहा था और उसे कटिंग चाय की पड़ी थी।

“घूर क्या रहे हो? चाय बोलो”, वह ऐसे बोली जैसे मैं…जैसे मैं…. इससे पहले उसने कभी मुझे उसके लिए चाय आर्डर करने को नहीं कहा था। पैसे भी वह अक्सर खुद देती आई थी या हम आधा आधा करते थे।

मैंने चाय आर्डर की और मुस्कराते हुए उसे देखते हुए बोला-“तो?”

“हम्म…”, उसने कुछ देर सोचा और फिर कहा -“पता है! मुझे गेटवे ऑफ़ इंडिया के पास भुट्टा खाना अच्छा लगता है। बारिश में गरमा गर्म भुन हुआ भुट्टा हो और उस पर हल्का नीम्बू और नमक लगा हो तो…”, उसने चटकारा लिया, और कहा, “मजा आ जाता है। चाय पीने के बाद उधर चलेंगे और भुट्टा खायेंगे। बारिश के मौसम में भुना हुआ भुट्टा बेहद स्वादिष्ट होता है। यह कहकर वह चुप हो गयी।”

तभी चाय आई और उसने चाय का कप खत्म किया। अब तक बारिश बूंदा बांदी में तब्दील हो गयी थी। हल्की हल्की बारिश मौसम को खुशनुमा बना रही थी। भीनी भीनी चाय की खुशबु एक अलग सा अहसास मन में जगा रही थी। दुकान के आस-पास जो पेड़ थे वह भी चमकने लगे थे। उन पर लगी धूल हट चुकी थी। हरी चटक पत्तियाँ हिल रही थी और ऐसा लग रहा था मानो वह अपने इस स्नान से खुश हों और बारिश का धन्यवाद कर रही हों।

मैंने चाय के पैसे दिए और फिर हम लोग गेटवे ऑफ़ इंडिया की तरफ बढ़ चले। हमारा ऑफिस रेडियो क्लब के नजदीक था जहाँ से गेटवे ऑफ़ इंडिया कुछ क़दमों की ही दूरी पर था।

हमने एक दूसरे का हाथ पकड़ रखा था। बारिश की हल्की बूँदे हमारे बदन को भिगो रही थीं और वहीं कुछ अच्छा सा मेरे मन को भिगो रहा था। यह बारिश भी कितनी खूबसूरत होती है न? मैंने मन ही मन सोचा।

हम चलते जा रहा थे। हम चुपचाप थे लेकिन हमारे हाथों की उँगलियाँ आपस में बातें कर रही थी। हाथों के घटते बढ़ते कसाव हमारे मन में चल रहे जज्बातों को ब्यान कर रहे थे।

हम गेट वे ऑफ़ इंडिया पहुँचे तो उधर भुट्टे वाले गरमा गर्म भुने हुए भुट्टे  लेकर जैसे हमारा ही इन्तजार कर रहे थे।

उसने मेरे तरफ देखा और मुस्करकार कहा -“ये मेरी ट्रीट होगी। समझे।”

“जी”, मैं सर नवाता हुआ सा बोला।”लेकिन तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया।”

वह मुस्कराई और उसने मुझे अपने पास आने का इशारा किया।मैं उसकी तरफ झुका तो वह  बालों में अपनी उँगलियाँ फिराती हुई बोली- “अभी प्रोबेशन पर हो!! समझे!” और यह कहते ही वह खिलखिलाकर हँस दी। अपनी वही हँसी जो उसके होंठों से उसकी आँखों तक पहुँच जाया करती थी। वहीं हँसी जो उसके तम्बाई चेहरे को बेहद खूबसूरत बना दिया करता था। यही हँसी तो थी जिसने  मेरा ध्यान राम्या की ओर आकर्षित किया था।

हुआ यूँ कि हम लोग चार बजे करीब चाय पीने अक्सर इधर आ जाया करते थे। राम्या भी अपने सहकर्मचारियों के साथ आती थी। फिर कुछ दिनों बाद हमारी टीम में एक नई सदस्या अनुकृति आई और वह राम्या की जानकार निकल गयी। अब राम्या उसके साथ हमारी गप्पों में शामिल होने लगी। फिर गप्पे बढ़ती गयी और कई बार हम लोग बिना किसी को बताये यहाँ आने लगे। सुबह ऑफिस जाने से पहले भी एक चक्कर लगा देते। मैं उसका साथ पाकर ही खुश था कि एक दिन पहले अनुकृति ने ही मुझे राम्या के इस्तीफे के विषय में बताया और तब से मैं उससे बात करना चाहता था।

कई बार हम सोचते हैं कि सामने वाला हमारी बातों को बिना बोले ही समझ जाये लेकिन ऐसा होता नहीं है। बिना कहे कुछ नहीं होता और अगर न कहें तो हमारे हाथ में सिवाय पछतावे के कुछ बचता ही नहीं है। मैं पछताना नहीं चाहता था और इसलिए बड़ी हिम्मत करके मैंने राम्या को आज मिलने बुलाया था।

मैंने उसे कनखियों से देखा। हम लोग भुट्टे वाले के पास पहुँच गये थे।  वह भुट्टे वाले को भुट्टे के विषय में निर्देश देने लग गयी थी।

बारिश रुक चुकी थी। मैंने ऊपर आसमान को देखा। आसमान साफ़ हो गया था। अब शायद आज के दिन और बारिश नहीं होती। मुझे बारिश न होने का दुःख था। मैं अब खुश था कि बारिश हुई थी और  हम दोनों को भिगो गयी थी इस प्रेम की बरसात से…..

समाप्त

©विकास नैनवाल ‘अंजान’

तस्वीर स्रोत: तस्वीर कैनवा के ए आई फीचर से बनाई गई

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहत हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

17 Comments on “बारिश – विकास नैनवाल ‘अंजान’ | कहानी”

  1. बारिश हो, साथ में चाय, उससे भी लाजवाब उनका साथ….क्या बात..क्या बात.. क्या बात..👌👌

  2. Nice, interesting story. 'पाइप भी पानी ऐसे उगल रहे थे जैसे उल्टी कर रहे हों।' This line caught my attention and made me smile.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *