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कहते हैं शौक बड़ी चीज है। मुझे लगता है जब ये बात कहते हैं तो कहने का तात्पर्य होता है कि शौक के लिए व्यक्ति जो कर ले वो कम होता है। वह इसके लिए ऐसी चीजों पर भी पैसे खर्च कर सकता है जो किसी को बेकार या बेफिजूल लगे।
मसलन, कुछ लोग होते हैं जिन्हें जूतों, घड़ियों इत्यादि का शौक होता है। अपने इस शौक के चलते वो महंगे से महंगे जूते, घड़ियाँ इत्यादि खरीद लाते हैं और मैं अगर ऐसे लोगों को देखूँ तो मेरे मन से आवाज निकलेगी लो कर लिए पैसे बर्बाद। वहीं जब वो लोग किसी मेरे जैसे बंदे को कॉमिक बुक्स या किताबों पर पैसे खर्च करते देखते हैं तो मुझे यकीन है उनके मन में भी ऐसे ही उद्गार जरूर निकलते होंगे।
ऐसे ही मैंने ऐसे व्यक्तियों के विषय में सुना है जो फर्स्ट एडिशन किताबें संग्रह करते हैं और अपने इसी शौक के चलते जर्जर किताबों के भी इतनी कीमत अदा कर आते हैं जितने में मेरे साल छः महीने या कभी कभी दस बारह साल की किताबें आ जाएँ। उन्हें देखकर भी मेरे मन में यही उद्गार आते हैं। पर क्या करें शौक बड़ी चीज है।
वैसे जब हम छोटे थे तो शौक की परिभाषा के रूप में हमें बताया गया था कि शौक वह चीज है जो व्यक्ति अपने खाली वक्त में करता है। पर अब जब कोई मुझे शौक के बारे में पूछता है तो मैं कहता हूँ कि शौक वह चीज है जो अगर कोई व्यक्ति करे तो चार लोग कहें अबे क्यों वक्त और पैसे बर्बाद कर रहा है। यकीन मानिए तब तक शौक शौक नहीं लगता है जब तक चार उसे वक्त और धन की बर्बादी बताने वाले न मिले।
शौको की बात करूँ तो शौक मेरे बचपन से ही काफी रहे हैं लेकिन मैं खुद को शौकीन कहने से बचता हूँ क्यों इस नाम की फिल्म ने इस शब्द का अर्थ थोड़ा क्या काफी बदल दिया है और लोग गलत अर्थ निकाल सकते हैं। लेकिन एक बात तो है बन्धु। इन शौकों का अपना एक वक्त होता है। अपने तय वक्त तक ये रहते हैं और फिर ये हमें छोड़ देते हैं या हम इन्हें छोड़ देते हैं। बस देखने भर का नज़रिया है। फिर हम नया कुछ पकड़ लेते हैं।
इस छोड़ने पकड़ने में बस अच्छी बात ये है कि पकड़े गए शौकों की संख्या छोड़े गए शौकों से ज्यादा ही रहती हैं। और कभी यह संख्या बराबर पहुँच जाए तो बरखुरदार समझ लेना चाहिए कि व्यक्ति के जीवन से रस गायब हो चुका है। वैसे भी जीवन में धन कमाने और वक्त पाने का फायदा क्या जब आप उसे अपनी मर्जी से किसी ऐसी चीज पर बर्बाद कर सके जो आपको सुकूँ दे और दूसरे को यह कहने का मौका कि अबे क्यों … आगे की बात तो समझ ही गए होंगे… है न?
चूँकि आज का टोपिक है एक ऐसे शौक की बात करना जिसे वापिस जिंदा करने की इच्छा मेरे मन में हो तो एक नजर छूटे हुए शौको पर नजर मारनी जरूरी हो जाती है।
अपने छूटे गए शौकों की फेहरिस्त देखता हूँ तो इनमें काफी नाम पाता हूँ। मेरे शौक दो श्रेणी के रहे हैं। एक तो संग्रह करने वाले और दूसरे बाकी सब। क्योंकि शौको में संग्रह करने वाले की संख्या ज्यादा रही है तो पहले इस पर ही नजर डाल ली जाये। वैसे मुझे बहुत पहले यह चीज पता चल गया था कि मेरे अंदर एक जीन मौजूद है जो कि चीजे इक्कठा करने पर मुझे असीम सुख देता है।। पर दिक्कत ये है कि चीजें अक्सर वो होती हैं जो दूसरों के नज़रों में कबाड़ होती हैं। कभी-कभी सोचता हूँ पैसा इक्कठा करने पर भी सुख मिलता तो शायद मैं काफी अमीर होता। ख्याली पुलाव पकाने का भी एक शौक अपना रहा है लेकिन फिलहाल मुलाहिज़ा फरमाइए कि खाकसार ने क्या-क्या चीजें इक्कठा की हैं:
पिच्चड़ ( माचिस की डिबिया के आगे का हिस्सा),क्रिकेट और wwe वाले कार्ड्स, कंचे, कोल्ड ड्रिंक के बोतल के ढक्कन जो काँच वाली बोतलों पर आते थे, टैज़ो, बूमर, बिग बबूल और ऐसे ही दूसरे च्विंगगमों में मिलने वाले टैटू, खाली रिफिल, पेन, पंजाब केसरी और टाइम्स ऑफ इंडियामें छपने वाली हीरोईनो की कलर फ़ोटो, अखबार में छपे रोचक आर्टिकल( जो कि एक डायरी में अभी भी सेफ हैं), मोज़ेर बेयर से आने वाली फिल्मी सीडियाँ, वेब सीरीज, थोड़ा वैसी वाली फिल्में, थोड़ा नॉर्मल फिल्में इत्यादि। (कॉमिक्स और किताबों का नाम इसलिए नहीं ले रहा हूँ क्योंकि ये तो आज भी बरकार हैं।)
अक्सर मैं चीजें एकत्रित करता था और जब मुझे लगता था कि चीजें हद से बाहर हो रही हैं तो उस चीज को इकट्ठा करने के शौक को तिलांजलि दे देता था। इसलिए काफी चीजें इकट्ठा करके मैंने फिर फेंक दी थी और फिर दूसरी चीजें इकट्ठा करने को लपक ली थी।
पर क्या मैं दोबारा से ऊपर मौजूद शौको को जिंदा करना चाहूँगा? शायद नहीं। चीजें एकत्रित करने से जितना दूर रहूँ उतना भी भला है मेरे लिए।
अपने दूसरे शौको को देखूँ तो इसमें दो ही शौक आते हैं। पहला तो ड्रॉइंग का शौक है। मुझे बचपन से ही ड्रॉइंग अच्छी लगती थी लेकिन दिक्कत ये होती थी कि मैं पेंसिल से तो चीजें अच्छी बनाता था लेकिन उसमें रंग भरने का वक्त आता था तो सारा गुड़ गोबर कर देता था। लाइन के अंदर रंग मेरे कभी कैद रहे नहीं और बाहर निकले रंग को ठीक करना मैंने सीखा नहीं। इसलिए फिर यह शौक छूटता चला गया। फिर ड्रॉइंग एक वक्त खाऊ शौक भी है जिसे आप शांत जगह पर बैठकर ही कर सकते हैं। हाँ, पाँच मिनट वाले स्केच आप बना सकते हैं लेकिन उसके लिए भी आपका ऐसी जगह पर बैठना जरूरी है जो हिले डुले ना। ऐसे में जब ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर भागने लगी तो ठहरने का इतना वक्त मिला नहीं और ये शौक हाथ से फिसलता चला गया।
वैसे कॉलेज के वक्त में कॉमिक बुक्स के पेज देखकर उसे काफी कागज पर उकेरने की कोशिश करता था। वहीं पेंसिल कलर से काफी कलरिंग भी की थी। मुझे हमेशा से लगता था कि वाटरकलर के बजाए करेयॉन और पेंसिल कलर मेरे लिए अच्छा माध्यम है। उसे नियंत्रित करना वाटर कलर या ऑइल पैंट के की तुलना में सरल होता है।
कॉलेज के वक्त के कुछ ड्रॉइंग जो कि देखकर ही बनाए थे मेरे पास मौजूद हैं। आज इस लेख के लिए उन्हें देखा तो लगा कि यार इसे ही जिंदा करना चाहिए। लीजिए आप भी देखिए।
कॉमिक्स के पेज से देखकर बनाए कुछ चित्र |
स्टिल लाइफ की कोशिश |
पेन से किसी तस्वीर को देखकर उकेरने की कोशिश |
ऐसे ही पेंसिल कलर से कुछ खेलने की कोशिश |
तो कैसे रहे ये ड्रॉइंग? ठीक ठाक ही है न? वैसे सच बताऊँ मेरे मन में कभी कभी कोई तस्वीर उभरती है। कई बार उस तस्वीर को लेकर कुछ लघु-कथाएँ भी लिखी हैं लेकिन कभी कभी मन में यह ख्याल जरूर आता है कि अगर इस तस्वीर को बना पाता तो कितना अच्छा रहता।
ड्रॉइंग के अलावा दूसरा कोई शौक देखूँ तो एक ही नजर आता है जिसे कभी जिंदा करना चाहूँगा। लेकिन उसे शौक नहीं कहेंगे। क्योंकि शौक वो होता है जो आप करो। उसे मैंने करा नहीं था बस करने की सोची थी।
बात ऐसी है कि जब मैं बारवहीं में था तो मैंने एक बार बोन्साई पौधों के बारे में पढ़ा था। उन पौधों का कन्सेप्ट मुझे अच्छा लगा था और उस वक्त मैं एक बोन्साई तैयार करना चाहता था। लेकिन फिर बारहवीं में एक तुलसी के पौधे को पानी देकर ही अपनी इस इच्छा को मैंने पूरा कर दिया और बोन्साई का ख्याल मन से दूर फेंक दिया। अभी भी सोचता हूँ कि कभी बोन्साई पौधा तैयार करूँ लेकिन पढ़कर इतना तो पता है कि उसका काफी ख्याल रखना पड़ता है। काफी कँटाई छँटाई करनी पड़ती है। यही कारण है कि फिर सोचता हूँ ये काम बुढ़ापे के लिए छोड़ दूँ। सब कुछ अभी कर लेंगे तो बाद में क्या करेंगे?
हैं न?
इसलिए फिलहाल के चित्रकारी ही वह शौक है जिसे मैं जिंदा करना चाहूँगा। कर पाता हूँ या नहीं ये दूसरी बात है। पर उम्मीद में तो दुनिया कायम है न।
तो ये थी मेरी बात कि मैं अपने कौन से शौक को वापस जिंदा करना चाहूँगा। आपका भी कोई है ऐसा शौक जो आपसे छूट गया है और आप उसे दोबारा जिंदा करना चाहते हो? अगर है तो मुझे जरूर बताइएगा।
नोट: ब्लॉगचैटर के #writeapageaday के तहत यह पोस्ट मैंने लिखी है। आज के दिन का प्रॉम्प्ट था One Hobby You wish you could revive
आपका यह शौक़ तो बहुत कलात्मक था विकास जी। आपकी बनाई हुई ये स्केच तो आपके एक प्रतिभावान चित्रकार होने का परिचय देती हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि इस शौक़ को पुनर्जीवित करके आप ज़िन्दगी में कोई ऐसा मुकाम पा जाएं जिसके बारे में अभी सोच भी न पा रहे हों। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) भी साहित्यकार होने के साथ-साथ शौक़िया चित्रकार थे और उनके बनाए हुए कई चित्र तो बहुत-ही उच्च कोटि के हैं। आप ही की तरह मेरी पुत्री भी बचपन से ही चित्र बनाने में रुचि लेती थी और उसने कई तो बहुत-ही सुंदर चित्र बनाए हैं। अब जैसा कि आपके साथ हुआ है, उसका भी पढ़ाई और करियर के चलते यह शौक़ छूट गया है लेकिन व्यक्ति को यदि कोई प्रतिभा जन्म से ही मिलती है तो वह उसके भीतर सदा रहती है। आप अपने दिल की पुकार सुनिए और अपने शौक़ को नई ज़िन्दगी दीजिए। हार्दिक शुभकामनाएं।
बहुत ही दिलचस्प आलेख। और आपकी ड्रॉइंग तो बहुत ही अच्छी है, और अच्छी बात है कि आप इसे फिर से शुरू करना चाहते हैं। मैंने दो-तीन साल से पेंटिंग करना शुरू किया है (कोई पुराना शौक नहीं है, बस अचानक ही। मैं तो स्कूल में भी ड्रॉइंग/पेंटिंग नहीं करती थी।), पर मेरी ड्रॉइंग बहुत ही बुरी है इसलिए मैं सिर्फ लैंडस्केप्स बनाती हूँ।
मुझे नहीं याद कि कोई पुराना शौक जो छूट गया हो। पहले मैगज़ीन्स पढ़ती थी, अब नहीं पढ़ती। मिस भी नहीं करती क्योंकि पढ़ने को अब इतना कुछ है।
नयी पेंटिंग/ड्रॉइंग देखना चाहूंगी। 🙂
जी आभार… कोशिश रहेगी शुरू करने की। डीटेल में कुछ न कर सका तो पाँच मिनट वाले स्केच दोबारा करूँगा। वो संतुष्टि देते हैं।
जी आभार। कुछ कोशिश रहेगी नया बनाने की।
विकास भाई, आपकी चित्रकारी तो बहुत ही अच्छी है। आप इसे फिर से शुरू करना चाहते है यह तो बहुत ही अच्छी बात है। मैं एक बात का उल्लेख करना चाहूंगी। नागपूर में एक डॉक्टर ने मेरी रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन किया था। बहुत ही नामी डॉक्टर थे। उन्होंने 4000 से ज्यादा रीढ़ की हड्डी के ऑपरेशन किये थे। उनका केHउड़ का बड़ा हॉस्पिटल था। ऐसे में अचानक उन्होंने डॉक्टरी छोड़ दी। जब तीन महीने बाद मैं फॉलो अप के लिए गई थी तब उन्होंने बताया कि अपना चित्रकारी का शौक पूरा करने के लिए वे डॉक्टरी छोड़ रहे है। मेरे पतिदेव हसंते है कि तुम्हारा ऑपरेशन करके डॉक्टर इतना थक गया की डॉक्टरी ही छोड़ दी। ऐसे भी होते है शौक!
अरे वाह ये तो बहुत अच्छी बात बताई आपने। कुछ प्रेरणा मिली है ये जानकर। आभार।
वाह!वाह!….. विकास जी की एक और रचनात्मकता……….. 👌👌👌👌👌👌👌….. माथुर जी ने सही कहा है…. असल में रविंद्र नाथ टैगोर को उस समय के चित्रकार पागल कहते थे…. लेकिन उनकी कला समय से आगे की थीं….. आज उन कलाओं का दाम अतुलनीय है… उन्होंने फूलों के रस का प्रयोग किया…. कॉपी में बनने वाले अक्षरों जिन्हें वो काट देते थे उससे बनने वाली शेडिंग ही उनकी इस कला की प्रेरणा बनी थीं……. इसीलिए रचनात्मक चीज़ें हमेशा ज़िंदा रहती हैं…. उम्र बाधा नहीं है…….. 🤗🤗🤗🤗🤗🤗🤗🤗🤗