संस्मरण पौड़ी के #3: खबेस उत्पत्ति कथा

आज पौड़ी से जुड़ा जो संस्मरण मैं साझा करने जा रहा हूँ वह थोडा अलग किस्म है। इसके लिए एक भूमिका आपको देनी जरूरी है। अगर आप दुईबात को पढ़ते आये हैं तो आपको पता होगा कि मैं गाहे बगाहे यहाँ पर अपने द्वारा लिखी गई लघु-कथाएँ भी प्रकाशित करता हूँ। लेकिन वह मेरे द्वारा लिखी गई कहानियों का एक छोटा सा भाग ही होता है।

असल में ऐसा है कि मैं अक्सर मूड आने पर कहानियाँ लिखता रहा हूँ लेकिन कभी तो कहानी पूरी नहीं होती है और कभी कहानी जब पूरी भी हो जाती है तो लिखकर ही मैं संतुष्ट हो जाता हूँ। उन्हें प्रकाशित करने का मौका कम ही लग पाता है या मेरा मन भी नहीं करता है।

ऐसे ही एक लिखकर रखी हुई कहानी आज का संस्मरण लिखने का कारण है।

तो हुआ यूँ कि कुछ वक्त पहले मुझे कहानियाँ नाम के ऑनलाइन पोर्टल द्वारा कराई जा रही लॉन्चपैड प्रतियोगिता की खबर लगी थी। वह खबर एक कहानी प्रतियोगिता के विषय में थी। ऐसी खबरें अक्सर मैं अपनी दूसरी वेबसाइट एक बुक जर्नल में साझा करता रहता हूँ।

खैर, खबर का लब्बोलुबाब ये था कि कहानियाँ और रेड ग्रैब प्रकाशन मिलकर एक कहानी प्रतियोगिता करवा रहे थे जिसके अंतर्गत उन्होंने लेखकों से 3500 से 4000 शब्दों के बीच की कहानी लिखने को कहा था। यह कहानी हॉरर या थ्रिलर विधा की होनी चाहिए थी।

पूरी तो खबर पढ़ना चाहें तो आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं:
कहानियाँ और रेडग्रैब बुक्स लेकर आये हैं ‘लॉन्चपैड’ प्रतियोगिता

खैर, मैंने यह खबर देखते ही इसमें हिस्सा लेने का मन बना लिया था। पहले सोचा कि इसके लिये नई कहानी लिखूँगा लेकिन लेखन के मामले में मैं आलसी प्रवृत्ति का व्यक्ति हूँ। सोचता ज्यादा हूँ और कई बार सोचते ही रह जाता हूँ। ऐसा ही अब भी हुआ। दिमाग में कई विचार थे जिन पर लिखना चाह रहा था लेकिन चौदह तारीख आते आते यह फाइनल ही नहीं कर पा रहा था कि किस पर लिखना है। चौदह की रात को एक विचार जो कई महीने से दिमाग की हांडी में खदबदा रहा था लगने लगा कि लिखने लायक हो चुका है। कम से कम शुरुआत तो की ही जा सकती थी। इसी सोच के साथ लिखना शुरू किया और पहले हजार शब्द सोने से पहले लिख दिए। मैं संतुष्ट था कि पन्द्रह जो कि आखिरी तारीक थी तब तक तो इस कहानी को पूरा लिख ही दूँगा।

लेकिन जो आप सोचते हो वो असल में होने लगे तो बात ही क्या हो? पन्द्रह की सुबह कमर कस कर बैठा और शाम तक मैं चार हजार शब्द लिख चुका था और कहानी खत्म होने में अभी भी काफी वक्त था। कम से कम दस पन्द्रह हजार शब्द तक तो वह पहुँचने वाली थी। यह देख एक बार तो दिल बैठने ही लगा। ‘लो गई यह प्रतियोगिता भी।’ मन में यह विचार आ ही चुका था कि तब मुझे अपनी लिखी पुरानी कहानियों की याद आई और एक कहानी मुझे इसके लिए उचित लगी। इसका नाम ‘खबेस’ था। खबेस गढ़वाली में भूत को कहते हैं।

यह हॉरर कहानी तो नहीं थी फिर भी इसमें परालौकिक तत्व मौजूद थे। कहानी लिखते हुए मुझे मज़ा भी आया था। दुबारा पढ़ी तो मुझे कहानी पसंद आई। विशेषकर दोनों बच्चों के बीच का जो रिश्ता था वो लिखते समय और पढ़ते समय मुझे अच्छा लगा।

मेरा कोई बड़ा या छोटा भाई नहीं है परन्तु बड़ी ताई जी के लड़के से मैं काफी नजदीक हूँ। जब वह बचपन में शुरू शुरू में दिल्ली से आये थे तो कहानी के मोनू की तरह ही थे। उनसे जुड़े संस्मरण कभी अलग से सुनाऊँगा। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि उनसे तब काफी मैं चिढ़ता भी था क्योंकि वह हम बच्चों पर धौंस जमाते रहते थे। पर बढ़े होने पर वह काफी सौम्य और मिलनसार प्रकृति के हुए और अब हम सभी भाई बहनों के चहेते हैं। तो मोनू के विषय में लिखते समय मैं उसी बचपन में खो गया था और उनको आधार बनाकर उसे लिखा। सोनू तो मैं खुद ही था। वैसे यहाँ ये बात साफ़ करना भी जरूरी है मोनू जैसी हरकतें मैंने भी काफी की हैं। छोटे भाई बहनों को डराया है। हाँ धौंस शायद ही कभी जमाई हो। लेकिन वो बातें फिर कभी।

वापिस आते हैं कहानी पर। कहानियाँ कहाँ से जन्म लेती हैं? अगर मुझसे आप पूछे तो मैं कहूँगा कि  शायद अपने या अपने आस पास के लोगों को हुए अनुभवों से ही इनका जन्म होता है। लेखक कल्पना का मुल्लमा चढ़ा कर इन्हें और आकर्षक बनाता जरूर है लेकिन मूल आधार उसके अपने अनुभव ही होते हैं जो उसने सीधे तौर पर लिए होते हैं या फिर किसी और के माध्यम से अर्जित किये होते हैं। कम से कम मेरा तो यही मानना है।

खबेस की कहानी भी कुछ ऐसी है। परलौकिक अनुभव जितने भी मेरे साथ या मेरे जानने वालों के साथ हुए हैं उनमें फिल्मो या कहानियों जैसी नाटकीयता नहीं होती है। ऐसे ही एक अनुभव को आधार बनाकर मैंने इस कहानी खबेस को उस वक्त गढ़ने का प्रयास किया था। और उसी घटना का संस्मरण मैं इस पोस्ट में आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।

तो बात यह है कि जब मैं छोटा था तो बचपन में मेरे साथ एक अजीब घटना हुई थी। उस वक्त मैं छः सात साल का या हो सकता है इससे भी छोटा रहा होऊँगा।

पौड़ी एक हिल स्टेशन है और वहाँ अक्सर गुलदार घरों तक आ जाते हैं। कई बार वह लोगों पर हमला भी कर देते हैं। कई बार वह पालतू कुत्तों के चक्कर में घरों के आस पास आ जाया करते है। उस वक्त भी ऐसा काफी होता था। ऐसे में बचपन में रात के वक्त घर से बाहर अकेले जाने में मुझे तो काफी डर लगता था। फिर हमारे घर के आस पास पेड़ और क्यारियाँ भी हैं जो रात के वक्त डरावनी लगने लगती थी। हल्की हवा होती तो उसमें सरसराहट होती। ऐसे में वहाँ पर जानवर होने का अहसास होता था जिससे डर के मारे मेरी घिग्घी बंध जाया करती थी।

उन दिनों हमारे घर में एक भैया रहा करते थे जिनका नाम प्रदीप था। चूँकि हम छोटे थे, पापा फ़ौज में थे और उनकी पोस्टिंग बहार थी और मम्मी भी जॉब करती हैं  तो ऐसे में हमारा ख्याल रखना मम्मी के लिए मुश्किल हो जाता था। इसलिए प्रदीप भैया हमारे साथ ही रहा करते थे। प्रदीप भैया के ज़िम्मे हमारा ख्याल रखना होता था।यानी उन्हें हमें सुबह उस बस स्टॉप तक ले जाना पड़ता था जहाँ पर स्कूल की बस आया करती थी और फिर जब हम स्कूल से लौटते तो वापिस घर तक लेने आना पड़ता था। साथ ही मम्मी जब तक दफ्तर रहे तो यह सुनिश्चित करना होता था कि हम पढाई लिखाई ढंग से करें। वैसे प्रदीप भैया का खुद का पढना का कोई विचार नही था और इसलिए उन्हें हमारे घर भेजा गया था। ऐसे में वह दो पैसे कमा लेते थे और यहाँ आराम भी था। फिर मम्मी के कहने पर उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू भी कर दी थी। वह पन्द्रह सोलह साल के रहे होंगे और प्राइवेट से बोर्ड की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे तो जब हम पढ़ते तो उन्हें भी पढ़ना पड़ता था। वैसे भी खाना तो मम्मी ही बनाती थी और बाकि कुछ काम उनके जिम्मे नहीं ही था।

उन दिनों हमारे घर का बाथरूम अन्दर नहीं बाहर ही था। आज भी अंदर तो है लेकिन बाहर भी है। ज्यादातर हम लोग बाहर वाला ही इस्तेमाल करते हैं। तो ढांचा कुछ ऐसा है। घर के बगल में एक बरामदा है। उस बरामदे के कोने में बरामदे की आधी लम्बाई में ऊपर की तरफ  पहले  बाथरूम है। और आधी में क्यारी है। क्यारी से बगल में बरामदे की तरफ बैठने के लिए सीमेंट का एक सोफा सा भी बना है। इस क्यारी में काफी पौधे जैसे टमाटर प्याज बैंगन गुलाब इत्यादि हमारे द्वारा लगाये गये होते हैं। साथ ही क्यारी से हमारी छत और हमारी छत से बाथरूम की छत पर हमने रस्सियाँ इस तरह बाँधी होती थी कि उनमें अक्सर सब्जियों जैसे लौकी और तोरई की बेलें लगी होती थी। एक तरह से मान लीजिये बरामदे के ऊपर इन बेलों की अलग से छत थी जो कि रात में काफी डरावनी लगती थी। बाथरूम के ऊपर एक खेत है जहाँ सब्जियाँ उगती थी और उधर भी पेड़ और पौधे थे। कई बार उस खेत में गुलदार भी देखा गया था। एक बार वहाँ उसने गाय भी मारकर डाली हुई थी जिसे बाद में वहीं खेत में गड्ढा कर दफना दिया गया था। खैर, वह बात फिर कभी। आपको आईडिया हो गया होगा कि रात के वक्त वहाँ पर कैसा माहौल रहता होगा।

ऐसे में छः सात साल की उम्र में बाहर अकेले जाने में मेरी हालत खराब रहती थी। एक तो गुलदार का डर और ऊपर से बेलों और पौधों के कारण रात को घर घर कम किसी हॉरर मूवी का सेट ज्यादा लगता था मेरी आँखों को। ऐसे में प्रदीप भैया ही हमारे साथ बाथरूम तक आते थे। वो गाँव में रहे थे और ऐसी चीजों के आदी थे। डर उन्हें जरा कम लगता था। फिर हमसे नौ दस साल बढ़े भी थे तो शायद तब तक डर उनके मन से निकल गया था। मैं भी तेरह चौदह साल की उम्र तक  बाहर अकेले जाना लगा था।

खैर, उस दिन जब बाथरूम आई तो  भैया के साथ ही मैं बाथरूम गया। हमारे बाथरूम का दरवाजा लकड़ी का हुआ करता था जो कि बारिश के दिनों में फूल जाया करता था। तब उसे बंद करना तो आसान रहता लेकिन खोलना टेढ़ी खीर होती थी। क्योंकि हम छोटे थे तो अगर कोई बड़ा बाहर से दम लगाकर ही धक्का मारे तो वह अपनी जगह से हिलता था।  ऐसे में हम केवल दरवाजा हल्का सा लगाकर रखते थे। ऐसा करने से दरवाजा जाम होने का डर नहीं होता था और हमें मशक्कत नहीं होती। हमें हिदायत भी यही दी गई थी कि दरवाजा पूरी तरह न लगाया जाए और इस हिदायत का पालन करने में ही हम अपनी भलाई समझते थे।

तो ऐसा ही वो एक दिन था। हमेशा की ही तरह मैंने बाथरूम जाना था और भैया तब तक बरामदे में मेरा इन्तजार करते। जब लम्बा जाना होता था तो वह अन्दर चले जाते थे लेकिन लघु-शंका के वक्त अन्दर जाने का तुक नहीं था। उस वक्त भी मैं लघु-शंका करने ही आया था लेकिन फिर पेट में गुड़गुड़ाहट होने के चलते सोचा देख लिया जाए कि कुछ होता है या नहीं। अगर कुछ आशंका लगती है तो भैया को अन्दर जाने को कह दूँगा और अगर नहीं लगती है तो बात ही क्या है। इसलिए मैं नीचे बैठकर परिणाम आने की प्रतीक्षा ही कर रहा था कि पहले बाहर किसी के तेजी से भागने की आवाज हुई और भड़ाक से दरवाजा खुला।

एक पल को तो लगा मेरा दिल उछल कर गले तक आ गया है। कुछ समझ नहीं आया कि हुआ क्या है। सच कहूँ तो आदमी शौच के लिए बैठे हुए ही अपना बचाव करने के लिए असक्षम होता है। जब तक कुछ समझ पाता तब तक प्रदीप भैया भीतर आ चुके थे और उन्होंने तेजी से दरवाजा जोर से बंद कर दिया था। उनकी साँसे तेज चल रही थी और वो कुछ नहीं बोल रहे थे। मेरी आँखें आश्चर्य से आँखों की कटोरी से बाहर निकलने लायक बड़ी हो गई थी और बैठा हुआ मैं उन्हें टुकुर टुकुर देख रहा था।

बस मैं इस बात का शुक्रगुजार था कि जो कार्यक्रम करने मैं बैठा था वह अभी चालू नही हुआ था। मैं फटाक से उठ गया और अपनी पैंट चढ़ा दी और उन्हें घूरने लगा। उनकी हालत ऐसी हो रखी थी कि मुझे उन पर गुस्सा भी नहीं आ रहा था।

वहीं मम्मी भी अन्दर से आवाज देने लगी थी। उनके भागने से चप्पल की आवाज़ और फिर दरवाजा पटखने की आवाज़ से वह भी घबरा गई थीं। उन्हें लगा शायद कोई जानवर भैया ने देख लिया था। वह खाना बना रही थी और सब कुछ छोड़कर बाहर आईं।

पहले तो काफी मेहनत के बाद दरवाजा खोला गया क्योंकि वो जाम हो गया था। उसके बाद प्रदीप भैया को अन्दर भेजा गया और मुझे कार्यक्रम निपटाने को कहा गया। लेकिन अब क्या हो सकता था। डर ने कार्यक्रम में अनिश्चितकालीन तक रोक लगा दी थी। कुछ देर तक मम्मी बाहर ही गार्ड बनी रही। जब लगा कि कुछ नहीं होने वाला है तो मैंने शौच के बाद की सभी प्रक्रिया फिर भी करी और बाहर निकलकर हाथ धोने चला गया। ज्यादा देर तक बैठने के बाद घर वालों को ये यकीन दिलाना मुश्किल रहता है कि कुछ हुआ नहीं है इसलिए चुप चाप सारे स्टेप फॉलो करने में ही भलाई होती है।

खैर, हम भीतर आये तो प्रदीप भैया अभी भी घबराये हुए थे। उस वक्त क्या हुआ था मुझे नहीं बताया गया। उन्हें पता था कि अगर बताया जाएगा तो मैं डर जाऊँगा। लेकिन मुझे इतना पता है कि कुछ दिनों तक वो भी अकेले बाहर नहीं गये थे। बाद में फिर सब नोर्मल हो गया था।

घटना के काफी दिनों बाद मुझे प्रदीप भैया से ही यह पता चला था कि वहाँ क्या हुआ था।

असल में प्रदीप भैया एक मस्त मौला इंसान थे। अपने में रहते थे और कभी कभी यों भी झूमने लगते थे। यही कारण था कि हम बच्चों के साथ उनकी अच्छी पटती थी और ऐसे में वह हमारे साथ तो मस्ती करते ही थे अकेले में भी अलमस्त रहते थे।

उस दिन भी वह वही कर रहे थे। मैं जब बाथरूम गया तो वह अपना टाइम पास करने के लिए गोल गोल घूमते हुए नाचने लगे।  उन्होंने दो चार चक्कर ऐसे ही घूमते हुए मारे। उस समय उनकी आँखें बंद थी। फिर अचानक से उन्होंने अपने आँखें खोली तो सामने जो जो देखा वो देखकर उनकी घिग्घी बन्ध गई। हमारे गेट के बाहर एक रास्ता है जो कि काफी संकरा है। इतना संकरा कि उधर से एक ही व्यक्ति मुश्किल से गुजर सकता है। लेकिन उस वक्त उस रास्ते पर तीन व्यक्ति एक साथ अगल बगल  खड़े थे। तीनों के कपड़े सफेद थे और वह हवा में तैरते हुए से लग रहे थे। इतना देखते ही उनकी हालत खराब हो गई। एक व्यक्ति अगर रास्ते में था तो दूसरा और तीसरा किसके सहारे खड़ा था? यह प्रश्न शायद उनके दिमाग में आया। फिर वह हवा में कैसे तैर पा रहे थे? यह विचार भी उनके होश फाख्ता कर देने के लिए काफी था।

यही कारण था कि वह ऐसे दौड़ते भागते सबसे पहली उस जगह पर पहुँचे थे जहाँ जाकर छुपा जा सकता था। और वह बाथरूम थी जहाँ मैं कार्यक्रम शुरू होने का इन्तजार कर रहा था।

क्या उन्हें लगातार घूमने के कारण दृष्टि भ्रम हुआ था? ये कहना मुश्किल है। क्योंकि उन्होंने के बार पहले भी ऐसी ही कोई परालौकिक चीज देखी थी और तब वह डरकर पड़ोसी के घर में घुस गये थे और बाहर तभी आये जब उन्हें छोड़ने पड़ोसी हमारे घर तक आये। फिर उनके आलावा कई और लोगों ने यह चीज उस वक्त देखी थी तो उनकी बात पर यकीन न करने का हमारे पास कोई कारण नहीं था।

मेरे जीवन में घटित हुई कुछ परालौकिक घटनाओं में से एक यह है।  हमारे यहाँ कहा जाता है कि अगर आप सुनसान रास्ते में रात को या दिन के वक्त भी जा रहे हैं और अगर कोई आपका नाम पीछे से पुकारे तो कभी पलट कर नहीं देखना चाहिए। अगर उस व्यक्ति को बात करने की गरज होगी तो वह तेज चलकर आपके पास आ ही जाएगा। और अगर वो कोई दूसरी शक्ति हुई तो उसे शायद ये लगेगा कि आप उसके होने का अहसास नहीं कर पाए हैं। ऐसे में वह आपको तंग नहीं करेगी। जिन्हें वह अपने होने का अहसास करा देते हैं उन्हें वह अक्सर तंग भी करते हैं। सच क्या है और झूठ क्या है?? कौन जाने लेकिन उपरोक्त घटना ही खबेस कहानी लिखे जाने  का आधार थी।

चलिए उन जगहों के तस्वीर देखें जिनका जिक्र ऊपर है। वैसे तो यह लगभग चौबीस पच्चीस  साल पुरानी बात होगी। इतने वक्त में घर में काफी बदलाव आ गया है। लेकिन मुख्य चीजें काफी हद तक वैसे ही हैं।

संस्मरण पौड़ी के #3: खबेस उत्पत्ति कथा
क्यारी, बरामदा और वो बाथरूम। साथ ही बेल जो छत की तरफ जा रही है।  उस वक्त बाथरूम के बगल वाली सीढियाँ नहीं हुआ करती थीं
संस्मरण पौड़ी के #3: खबेस उत्पत्ति कथा
बाथरूम की छत पर अब टंकी और गमले हैं उस वक्त कद्दू की बेल हुआ करती थी। सामने ऊपर जो घर दिख रहा है उसके बगल वाला खेत वही था जहाँ गुलदार अक्सर आया करता था
संस्मरण पौड़ी के #3: खबेस उत्पत्ति कथा
सामने जो गेट है उसी के पार वो चीज उन्हें दिखी थी। क्यारी के बगल में जो सीमेंट का सोफे था उस पर अब गमले रखे हुए हैं।
संस्मरण पौड़ी के #3: खबेस उत्पत्ति कथा
वह रास्ता जहाँ भैया के अनुसार तीन आदमी अगल बगल तैरते हुए आगे जा रहे थे

अगर अपनी बात करूँ तो आज भी यह घटना मुझे ऐसे ही याद है जैसे कल ही की बात हो। हाँ, खबेस लिखते हुए मैं सोनू के रूप में फिर इसे दोबारा जी  गया था।

जब खबेस कहानी मैंने कहानियाँ वेबसाइट में पोस्ट की तो सोच ‘संस्मरण पौड़ी के’ सीरीज में इस कहानी की उत्पत्ति कथा लिखी ही जानी चाहिए। उम्मीद है यह कथा आपको पसंद आई होगी।

कहानी अगर आप पढना चाहे तो कहानियाँ वेबसाइट में पढ़ सकते हैं। यहाँ पर मैं उस कहानी का एक छोटा अंश ही दे रहा हूँ:

खबेस: अंश

“मम्मी ई ई ई “, सोनू चिल्लाया।

मम्मी उस वक्त रोटी बना रही थी। उन्होंने सोनू को देखा तो वो अपने दोनों घुटनों को आपस में टिकाये, आपने हाथों को पेट पर जोड़े अपनी मम्मी को देख रहा था।

“मम्मी सुसु आ रही है। बाहर चलो न!”, उसने एक पाँव से दूसरे पाँव पर वजन डालते हुए बोला था।

“मोनू!” मम्मी चिल्लाई थी। मोनू सोनू का बड़ा भाई था और सोनू दुनिया में उससे ही सबसे ज्यादा नफरत करता था। मोनू हर वक्त उस पर अपनी धौंस जमाता था। वो उससे पाँच साल बढ़ा था लेकिन ऐसे बर्ताव करता था जैसे वो मम्मी पापा के उम्र का हो। उसकी दादागिरी से सोनू तंग चुका था और वह कल्पनाओं में कई बार मोनू को पीट चुका था। लेकिन ऐसा नहीं था कि मोनू किसी काम का नहीं था। कई बार स्कूल में जब लड़ाई होती थी तो मोनू ही उसकी मदद करता था।

सोनू को याद है जब ऋषभ उसे खेल के मैदान में परेशान कर रहा था और उसके कंचे नहीं दे रहा था। तब मोनू को किसी तरह पता लग गया था और उसने आकर मदद की थी। उस वक्त उसे बहुत अच्छा लगा था। मैदान से आते हुए जब उसने मोनू को धन्यवाद बोलना चाहा था तो मोनू ने उसके बालों को बिगाड़ कर कहा था-“देख भई, घोंचू। तुझे मेरे अलावा कोई परेशान करे ये किसी को हक नहीं।”

न जाने क्यों सोनू को उस वक्त उसकी बात पर गुस्सा नहीं आया था। पहली बार लगा था कि उसका भाई अच्छा है। यह अहसास उसे होता रहता था लेकिन इसका होना इतना कम था कि ज्यादातर वक्त वो मोनू से परेशान ही रहता था। इस बार भी यही हुआ था।

**************

पूरी कहानी आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

खबेस

अपनी राय से मुझे अवगत करवाना न भूलियेगा।

क्या आपके साथ भी कुछ इस तरह की घटना घटित हुई है?? अगर हाँ तो मुझसे साझा करना न भूलियेगा।

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

0 Comments on “संस्मरण पौड़ी के #3: खबेस उत्पत्ति कथा”

  1. कहानी दिलचस्प लगी। आपका अंदाज़ ए बयां उससे भी दिलचस्प। बहुत-बहुत आपको। सादर।

  2. मजेदार संस्मरण विकास जी,ये लौकिक-परलौकिक बाते कुछ ऐसी है कि -"जिन बीती तिन जानी " आप किसी को यकीन नहीं करा सकते हैं। ये विषय आज भी दिलचस्प है.वैसे विज्ञान ने ये मान लिया है कि -लौकिक-परलौकिक चीज़े भी होती है। सादर नमन आपको

  3. जी आभार, मैम। आपने सही कहा। मैं वैसे नास्तिक हूँ। पूजा पाठ में ज्यादा विश्वास नहीं करता लेकिन कुछ घटनाएं और उनका असर ऐसा देखा है की इन चीजों को मानता हूँ। कुछ चीजें हैं जो अभी हमारी समझ से परे हैं।

  4. नमस्ते, सही कहा आपने बचपन के कुछ किस्से ऐसा लगता है जैसे कल हुई बात हों। घटना के साथ-साथ जो आपने स्थिति, माहौल, और जगह की सटीक जानकारी दी उससे यह बात और रोचक बन गई। वैसे आजकल कहाँ हैं प्रदीप भैया?

  5. बहुत ही रोमांचक संस्मरण और बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया आपने।
    कुछ घटनाएं सत्य होती है पर समझ से बाहर ।
    बहुत सुंदर।

  6. बहुत ही रोचक हास्यमिश्रित संस्मरण.. आपकी बातों एवं सुन्दर तस्वीरों से गाँव की यादें ताजा हो गयी….।
    खबेस !!!
    बहुत सुन्दर नाम दिया आपने अपनी हॉरर कहानी को…ऐसे भूत-प्रेतों के न जाने कितने किस्से गाँव के बड़े बुजुर्गों से सुन सुन कर वहाँ रात को क्या दिन में भी डर लगता है…
    शानदार लेखन।

  7. विकास भाई, बहुत ही दिलचस्प कहानी। भूत प्रेत होते है या नही यह तो मुझे नही पता लेकिन न जाने क्यों मेरा मन यह बात स्वीकार करता ही नही है कि भूत नाम की कोई चीज दुनिया मे है। खैर। कहानी रोचक है।

  8. जी आभार मैम। ये ऐसी चीजें हैं जिन्हे अनुभव होता है वो मानने लगते हैं और जब तक अनुभव नहीं हुआ होता है तब तक ना मानना ही ठीक रहता है।

  9. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (23-07-2021) को "इंद्र-धनुष जो स्वर्ग-सेतु-सा वृक्षों के शिखरों पर है" (चर्चा अंक- 4134) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

Leave a Reply to मोहित शर्मा ज़हन Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *