नीलकंठ का ट्रैक आखिर खत्म हो चुका था। मैं मंदिर देख आया था और अब वापस ऋषिकेश की तरफ मुड़ गया था। दिन का वक्त था। सूरज आसमान पर चढ़ा हुआ था और अपनी तपिश से धरती झुलसाने की कोशिश कर रहा था। सुबह जब मैं आया था तो कँपकपाती हुई ठण्ड थी लेकिन अब दिन में पसीने की बूँदे मेरे माथे से चुहाने लगी थी। रुमाल से पसीना पोछने पर भी थोड़ी ही देर में पसीना फिर हाजिर हो जाता। मैंने जो हुड पहना था वो निकाल दिया था और अब वापसी के रास्ते में लगा था। ऐसे में मैं रास्ते में एक ढाबा पड़ा और मैं उस ढाबे में घुस गया।
वैसे तो न मुझे थकान लगी थी और न कुछ खाने का ही मन था। लेकिन मंदिर जाते हुए जब इधर चाय के लिए रुका था तो ढाबे वाले भाई ने कहा था कि मैं दिन के खाने के लिए इधर रुकूँ। अब खाने का मन तो नहीं था लेकिन फिर सोचा चलो एक चाय का कप ही पी लिया जाये। उनकी बात भी रह जायेगी और मुझे बिना कुछ लिये जाते हुए बुरा भी नहीं लगेगा। सुबह एक पांच रुपये वाला पार्ले जी का बिस्कुट लिया था। उस वक्त उसे आधा निपटाया था तो अब उसे पूरा खत्म कर देना का विचार था। यात्रा के दौरान अक्सर मैं हल्का फुल्का भोजन ही करता हूँ। भारी खाकर एक तो चलने में दिक्कत होती है और ऊपर से प्रेशर बने तो और दिक्कत हो जाएगी। खैर, ढाबा अभी भी खाली था। अभी ज्यादा पर्यटक नहीं आये थे। फिर जिस रास्ते में ढाबा था उधर से खाली पैदल जाने वाले यात्री आते थे। जो श्रद्धालु टैक्सी से आते थे वो काफी आगे रुकते थे।
दुकान में अभी केवल वही भाई थे।
मुझे आता देख दुकान वाले भाई ने कहा-“आओ, भाई जी। देख आये मंदिर।”
मैं – “जी। देख आया। अभी तक दूसरे लोग नहीं आ रहे।”
दुकानदार- ” आजकल कम ही आते हैं और क्योंकि ठंड है तो देर में आते हैं। आपके लिए खाना लगा दूँ।”
मैं-“नहीं। भूख नहीं लगी है। आप ऐसा कीजिये एक चाय कर दीजिए। मीठा कम डालना।”
“ठीक है भाई जी।” कहकर दुकानदार साहब तो चाय बनाने में तल्लीन हो गए और मैं अपने फोन में व्यस्त हो गया। सिग्नल आ ही रहे थे तो थोड़ा सोशल हो रहा था। तकीनीक की दुनिया में ऐसे ही फोन पर सोशल हुआ जाता है।
तभी उस दुकान में एक और व्यक्ति आया। वह व्यक्ति उनका जान-पहचान का लग रहा था।
मुझे व्यस्त देखकर दुकानदार और वो भाई आपस में बात करने लगे।
दुकानदार : ‘चाय पियोगे’
साथी: ‘ हाँ, ब्रेड भी दे देना। ब्रेड पकोड़ा नहीं बना रहा।’
दु :ग्राहक आएंगे तो बनाता हूँ।
दुकानदार ने चाय का कप मेरे पास रखा और दूसरा कप अपने साथी को दिया जो उसके नज़दीक ही बैठा था। साथ में उसने एक ब्रेड का स्लाइस भी उसे दिया।
सा: पकोड़ा रहता तो सही रहता।
दु : भाई जी ग्राहक आएंगे तो साथ में दे दूँगा। तब तक इसी से काम चलाओ।
साथी ने ब्रेड लिया और हँसने लगा।
दु: क्या बात है भाई जी।
सा: एक बात याद आ गई इस ब्रेड के टुकड़े को देखकर।
दु : क्या
सा: जब मैंने दसवीं की थी तो नौकरी करने लिए लखनऊ गया था। पढ़ाई में मन नहीं लगता था तो सोचा थोड़ा पैसे कमा लूँ।
दु: लखनऊ कैसे?
सा: सुनाता हूँ।
(अब दुकानदार भाई के साथी ने कहानी सुनानी शुरू की। उन्ही की जबान से इस किस्से को सुनिए।)
उस वक्त मैंने दसवीं पास की थी। घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी और मेरा पढ़ाई में वैसे भी मन नहीं लगता था। ऐसे में हमारे यहाँ एक व्यक्ति आये थे। उन्होंने बताया कि लखनऊ में एक परिवार रहता है। वह लोग हमारे इधर, यानी गाँव के पास, के ही थे और उन्हें एक काम करने वाले लड़के की जरूरत थी। यह मेरे लिए अच्छा मौका था। मैंने सोचा कि ऐसे में बाहर भी घूम लूँगा और घर की आर्थिक मदद भी कर लूँगा।पढ़ना मैने वैसे भी नहीं था। यही कारण था कि मैंने उस व्यक्ति की बात मान ली और लखनऊ पहुँच गया।
जब मैं लखनऊ पहुँचा तो मुझे पता लगा कि असल में मुझे बनारस के लिए बुलाया गया था। बनारस में उन लोगों की लड़की रहती थी। उसके पति और वो डॉक्टर थे।दोनों काम करते थे और घर में बच्चा अकेला रहता था। इस कारण वो अपने तरफ के किसी बंदे को ले जाना चाहते थे ताकि भरोसा रहे। मुझे भी कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन लखनऊ से बनारस मुझे एक दो महीने बाद जाना था। तब तक के लिए मुझे उन बुजुर्ग दम्पति के लिए ही काम करना था।
अब सच बताऊँ भुला तो, उनमें से बुजुर्ग आदमी तो व्यवहार का अच्छा था लेकिन उसकी औरत एकदम डायन थी डायन। ओह! वो भी क्या दिन थे। याद आती है तो रोना और हँसना एक साथ आता है। जितना ब्रेड का टुकड़ा तुमने मुझे दिया। वो ऐसे ही ब्रेड का एक टुकड़ा और चाय सुबह देती थी। फिर दिन भर मुझे काम करना पड़ता था।दिन में थोड़ा सा आधा पेट खाना मिलता था और फिर पूरा काम। यही चीज रात को होती था।मैं उस वक्त जवान हो रहा था तो भूख ऐसे लगती थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी। ऐसे एक एक डेढ़ हफ्ता गुजर गया।
उन्होंने थोड़ी सांस ली और चाय में ब्रेड डुबोकर खाया। मेरी चाय भी खत्म हो चुकी थी। उनकी कहानी मुझे रोचक लग रही थी तो मैंने भी पूरी सुनने का इरादा कर दिया था। मैंने दुकानवाले भाई से एक और चाय माँगी। उन्होंने मुझे चाय दी और फिर अपने साथी के बगल में बैठ गये। उनके साथी ने चाय की एक चुस्की ली और फिर गुजरी हुई यादों में खोते हुए कहने लगे।
हम लोग गरीब जरूर थे लेकिन वो गरीबी अन्न के मामले में कभी हमने महसूस नहीं की थी। खाना हमने हमेशा पेट भर कर खाया था। आधा पेट रहने की आदत नहीं थी। मैंने मन बना लिया था कि इधर मेरे से नहीं रहा जायेगा। बस मैं एक महीना काटना चाहता था ताकि अपने हिस्से के रूपये लेकर घर जा सकूँ। डेढ़ दो हफ़्तों का ही तो सवाल था।
ऐसे ही कुछ दिन गुजरे की घर में उन्होंने घी बनाया। बड़ी सी कढाई में घी बना था। घी अलग रखने के बाद कढाई में खुरचन बची हुई थी। मुझे भूख लग रही थी। उन्होंने मुझे कढाई धोने के लिए दी तो मैने सोचा कि धोने से पहले इससे खुरचन निकालकर खा ही लूँ। वैसे भी कौन सा कोई आने वाला था। और मैं घी की कढ़ाई की खुरचन खुरच कर खाने लगा। भूख में हर चीज स्वादिष्ट लगती है और मुझे भी उस खुरचन को खाने में मज़ा आ रहा था।
तभी मुझे उस बुढ़िया की चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी। मुझे पता ही नहीं लगा वो कब मेरे ऊपर आकर खड़ी हो गई। उसके हाथ में के बड़ी सी करछी थी और वो मुझे उससे मारते हुए कह रही थी कि मैंने उनकी कढाई जूठी कर दी। एक दो करछी मेरे पर पड़ी तो मेरा दिमाग घूम गया। वैसे ही मुझे भूख लगी थी। मैंने उसके हाथ से करछी छीनी और एक दो उसके सिर पर मारने को हुआ। वो डर कर दुबक गई। मैंने एक तो उसके कंधे पर एक हल्की सी मारी और फिर करछी छोड़कर भाग खड़ा हुआ। मैं अपना जितना सामान ले सकता था लिया और उधर से भाग खड़ा हुआ।
भाई जी उस दिन मुझे इतना डर लग रहा था न मैं कह नहीं सकता। मैं अकेला था और मैं ही जानता हूँ कि किस तरह से वापस आया। हर पल मुझे यही लगता कि अब कोई मुझे पकड़कर ले जाएगा।
पर अब जब सोचता हूँ तो ऐसा लगता है कि मैंने उस शैतान बुढ़िया बढ़िया मजा चखाया।
यह कहकर वो हँसने लगे। उनका साथी भी हँस रहा था और मेरे चेहरे पर भी मुस्कान थी।
हँसते हँसते वो कह रहे थे – मुझे पक्का पता है कि उसके बाद उसने किसी लड़के को ऐसे तो नहीं मारा होगा।
मैं उठा और मैंने चाय के पैसे चुकाये। मैं दुकान से निकल रहा था वो लोग अभी भी शैतान बुढ़िया को मजा चखाने की याद करके हँस रहे थे।
मैं निकलते हुए सोच रहा था कि उस वक्त पंद्रह सोलह साल का यह लड़का कितना डरा हुआ होगा। वो एक ऐसी जगह में था जहाँ उसका जान पहचान का कोई नहीं था। वो पूरी तरह से उन लोगों पर ही आश्रित था और यही कारण भी था कि उन वृद्धा ने उस पर इतनी आसानी से हाथ उठा दिया। जब उसने इसका प्रतिकार करने की ठानी तो यह उसके लिए बहुत बड़ी बात थी। कई लोग तो सह जाते। कई सहते भी हैं। लेकिन आज इतने सालों बाद वो उस चीज को याद करके हँस रहा था।
मुसीबत कितनी भी बड़ी क्यों न हो। हम उससे लड़कर आगे बढ़ जाए तो भविष्य में हम उस मुसीबत को याद करके उस पर हँस सकते हैं। यह बात मैं उनसे सीख सकता था। घूमते हुए न जाने आप क्या सीख जाएँ। इसलिए मुझे घूमना फिरना पसंद है। कुछ न कुछ अनुभव हो जाता है।
बाकी उस भाई जैसे न जाने कितने लोग आज भी अमीरों के घरों में काम करते हुए शोषण का शिकार हो रहे होंगे। वो बेचारे चुपचाप सब सहते हैं। हर कोई ऐसा नहीं है कि प्रतिकार कर सके। उम्मीद है वो भी कभी प्रतिकार करेंगे ताकि भविष्य में अपने उस दुखद दौर याद करके वो हँस सकें।
समाप्त
(यह लघुकथा मेरी नीलकंठ यात्रा के दौरान सुने किस्से से बनी है। मैने किस्से में ज्यादा फेर बदल नहीं किया। मुझे लगा यह एक रोचक किस्सा था जिसे अलग से लिखा जाना जरूरी था। मेरी नीलकंठ महादेव यात्रा की पहली कड़ी आप इधर पढ़ सकते हैं : नीलकंठ महादेव यात्रा #1 उम्मीद है वृत्तांत आपको पसंद आएगा। )
बढिया … संस्मरण
लखनऊ मेै एक परिवार रहता था, है…
इसे ठीक कर लें
शुक्रिया, चन्दन जी। ठीक कर दिया है। आभार ध्यान दिलाने के लिए।
बहुत बढ़िया ।
जी आभार…
चिन्तनपरक सृजन ।
जी आभार मैम।