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इन फिजाओं में ये क्या पड़ा हुआ है,
क्यों नकाब हर चेहरे पर चढ़ा हुआ है,
दफन करने पड़ते हैं सवाल भी हमें,
ज़बाँ पर अब ताला मैंने भी जड़ा हुआ है
ये मौका वो नहीं,ये मजलिस भी वो नहीं,
देख सीना ताने हर एक खड़ा हुआ है,
लड़ने मरने को हैं तैयार अपनो से ही वो,
सच है के ये जमाना ही सड़ा हुआ है,
न वो मेरी सुने, न मैं ही सुनता हूँ उनकी,
अपने ही सोचों में हर कोई अड़ा हुआ है
फकत,बात इतनी के मोहब्बत का प्यासा हूँ,
देख न साकी, प्याला मेरा खाली पड़ा हुआ है
गफलत थी तुझे, के तू अपनों में है अंजान,
अनजानों के बीच, तू आज भी तन्हा खड़ा हुआ है
– अंजान
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’
अति सुन्दर सृजन ।
जी आभार,मैम