“तुम बहुत बदल गये हो।” उसने मुझसे कहा था।
चाय की चुस्कियों और किताब के सफहों के ऊपर से नजरें उठाकर मैंने उसे देखा था।
वो मुझे देख रही थी। उसकी कही बात प्रश्न नहीं थी। वो एक वक्तव्य था।
मैंने उसे देखा, चाय की चुस्की ली और फिर हौले से कहा- “हाँ,शायद मैं बदल गया हूँ।”
“देखा!” उसकी आवाज़ में विजय का भाव आया,”सब बदल जाते हैं। तुम भी सभी जैसे निकले।”
मैंने उसे देखा और फिर अपने कमरे को देखा।
मैं हमेशा से ही बिखरा हुआ इनसान था। अंदर ख्याल बनते, बिगड़ते, टूटते और बिखरते रहते थे। ये बिखराव बाहर भी दिखता था। मेरे कपड़े पहनने के तरीके में, मेरे कमरे में, मेरे जीवन जीने के तरीके में।
फिर वो ज़िन्दगी में दाखिल हुई थी। उसे सलीका पंसद था। ख्यालों में, कपड़े पहनने के तरीके में, और जीवन जीने में।
मैंने खुद को देखा, अपने कमरे को देखा और अपने जीवन को देखा।
हर चीज तरतीब से, सलीके से थी। उसमे वो थी, मैं, मेरा बिखराव… कहीं खो सा गया था।
शायद, बदल ही तो गया था मैं।
मैंने कुछ कहना चाहा। लेकिन फिर इतना ही कह पाया,”हाँ,शायद बदल ही गया हूँ मैं।”
16 दिसंबर 2018 को यह छोटी सी लघु-कथा फेसबुक पर लिखी थी। थीम बदलाव का है। कई बार हम रिश्ते में दूसरों को बदलने की भरसक कोशिश करते हैं और फिर जब वह बदल चुके होते हैं तो उनके बदलाव पर आश्चर्यचकित होते हैं। प्रेमियों में अक्सर यह चीज देखने में आती है लेकिन यह बात हर रिश्ते पर उसी तरह लागू होती है। फेसबुक ने इस लघु-कथा के विषय में याद दिलाया तो सोचा इधर भी इसे साझा कर दूँ।
Ⓒविकास नैनवाल ‘अंजान’
बहुत सुंदर
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आभार…
Super quality fiction story or a poem that can tell you something really beatiful! Thanks for sharing it!
Blogging Generation
Thanks
bhai bahut badheya
जी आभार…
बहुत सुंदर रचना।
आभार…
सही कहा साथी को उसके अनुरूप पसन्द कर अपने अनुरूप ढ़ालकर फिर शिकायत…
यही तो होता है वाकई यही सच है
बहुत सुन्दर सारगर्भित सृजन।
जी आभार मैम…
बहुत बढ़िया लघुकथा ।
जी आभार मैम।
बहुत सुंदर, मुझे यह मेरी जिंदगी की कहानी लगी
कहानी आपको पसंद आयी ये जानकर अच्छा लगा दिनेश जी।