बसपन का प्यार थीं ये टॉफियाँ

कई  बार कुछ चीजें ऐसी हो जाती हैं कि आपको अपने बचपन की याद दिला देती हैं या उसके विषय में सोचने पर मजबूर कर देती हैं। अब हाल ही की बात ले लें। हमारे कॉमिक बुक्स से संबंधित  एक व्हाट्सएप ग्रुप में एक सदस्य , शुभम भाई ने, अपनी पसंदीदा टॉफी का जिक्र किया तो उसने बचपन की कई ऐसी टॉफियों की याद मन में ला दी जिनको पाने की इच्छा से हम उन दिनों मरे से जाते थे। बस इसी फिराक में रहते थे कि कहीं से एक दो रुपये मिले या फिर कोई रिश्तेदार आये और हमें कुछ अच्छी टॉफियाँ खाने को मिले। 

क्या दिन थे न वो! वैसे टॉफी खाने के भी कई तरीके होते थे। 

अक्सर तो टॉफी के लिए इतने उत्साहित रहते थे कि आते ही उसे चबाना शुरू कर देते और तब तक चबाते रहते जब तक कि वो टुकड़े टुकड़े होकर पेट में न समा जाए। इसमें मज़ा तो खूब आता था लेकिन टॉफियाँ इतनी जल्दी गायब हो जाती थी कि फिर खाने के बाद ग्लानि से भर जाते थे कि इतनी जल्दी खत्म हो गई। थोड़ा धैर्य दिखा देते तो लंबा चलती। 

फिर कई बार टॉफी मुँह में डालकर कड़क करके तोड़ी तो जाती लेकिन इस तरह कि वो केवल दो टुकड़ों में ही विभाजित हों। अब एक टुकड़ा बाई तरफ गाल और दांतों के बीच चला जाता और दूसरा टुकड़ा दाईं तरफ वाली जगह में चला जाता। इसके बाद शुरू होता खेल। इन टुकड़ों को धीरे धीरे चूसा जाता । कभी दोनों टुकड़ों को जीभ पर ले जाया जाता। कभी दायें तरफ मौजूद टुकड़े को बाई तरफ और बाईं तरफ मौजूद टुकड़े को दाईं तरफ सरका लिया जाता। टॉफी का जो रस रहता वो इस तरह से लंबा चलता और ज्यादा देर तक टॉफी का आनंद आता था।  

फिर आखिरी तरीका वह होता जब हम अपने मन पर पूरी तरह से काबू पा लेते थे। इसके लिए धैर्य की आवश्यकता होती थी जो कि कम ही होता। इसमें हम टॉफी को मुँह में डालकर उसे तोड़ते नहीं थे बल्कि उसे चूसते चले जाते थे। कभी पूरी टॉफी गाल और दांतों के बीच की जगह में जाती। कभी वह बाईं जाती। कभी जीभ के ऊपर रखकर उसे जोर से चूसा जाता और जो रस आता उसे सुड़क कर घूँट दिया जाता था। ये सब करने में अलग ही आनंद रहता था। टॉफी के रस का आनंद हम तब तक लेते थे जब तक कि वो घुलते घुलते इतनी पतली न रह जाएँ कि एक और बार सुड़ुप करके चूसने पर टूट जाये। ये सुड़ुप होना और टॉफी के उस पतले से पैने टुकड़े का टूटने का अपना मज़ा होता था। लगता था जैसे कुछ खास हमने पा लिया है। एक बड़ा सा काम कर दिया है। 

टॉफी खाने के तरीके पर बात हो गई  लेकिन अब टॉफियों पर बात कर ली जाए। उस दौरान जो टॉफियाँ  मुझे पसंद आती थी उनमें से कुछ ये थीं:  

गुरु चेला 

गुरु चेला

बचपन की याद आती है तो सबसे पहले नाम गुरु चेला का ही आता है। ये चटपटी गोलियों का पैकेट होता था जिसमें एक तस्वीर बनी होती थी। तस्वीर की खासियत यह होती थी कि एक तरफ से देखो इस तस्वीर में चेला दिखता था और दूसरी तरफ से देखो तो गुरु के दर्शन हो जाते थे। उस समय इसमें मौजूद गोलियों को खाने से ज्यादा ये पैकेट ही कोतूहल का केंद्र होता था।  और फिर जब पैकेट हाथ में आता था तो एक एक गोली को मुँह में डालकर पैकेट को उलटने पुलटने का अपना एक अलग आनंद रहता था। वैसे इन गोलियों को खाकर ही चटखारा भी लगाया जाता था। 

अमेज़न: गुरु-चेला 

संतरे वाली गोली

संतरे वाली टॉफी

उन दिनों संतरे वाली टॉफी भी मेरी पसंदीदा टॉफियों में से एक हुआ करती थी। संतरे की फाँक के आकार में ये टॉफियाँ आती थी और स्वाद भी सूखे संतरे जैसा ही होता था। छोटे छोटे पैकेट में ये आती थी जिसे हम लोग अक्सर बस में सफर के दौरान लेते थे। अक्सर बस अड्डे में खड़ी बसों में ही इन्हें बेचा भी जाता था। इस कारण इस टॉफी को अक्सर यात्रा करने के दौरान ही लिया जाता था। इसका और उपयोग उन दिनों लोग करते थे। पहाड़ के रास्ते घुमावदार होते हैं। कई बार इन घुमावदार रास्तों में जब बस चलती है तो यात्रियों को उल्टी इत्यादि होने लगती थी। कई लोग इन टॉफियों के पैकेट रख लेते थे और एक एक टॉफी चूसते हुए जाते थे ताकि बस में सफर के दौरान वो जी मिचलाये तो उल्टी न करें। 

अमेज़न लिंक: संतरे वाली टॉफी 

मैंगो बाइट्स 

मैंगो बायट्स

जहाँ संतरे खाने का मन हो तो संतरे की गोली का रुख करते थे वहीं अगर बे मौसम आम का स्वाद लेने का मन हो तो मैंगो बाइट्स भी हम खा लिया करते थे। पीले और हरे रंग के रैपर में आती ये टॉफी भी मुझे उन दिनों काफी पसंद आती थी। ऐसा लगता था आम के टुकड़े चूस रहे हों। इन्हें तो मुँह में डालकर मुझे चबाना ही बहुत अच्छा लगता था। होती बड़ी कड़क थीं ये और इसलिए दम लगाकर ही टूटती थीं। 

अमेज़न लिंक: मैंगो बायट्स

एलपेनलीबे 

एलपेनलीबे मेरी पसंदीदा टॉफियों में से एक थी। शुरुआत में इसका एक भूरे रंग वाला फ्लेवर ही आता था। टॉफी  का आकार भी गोलाकार रहता था। ये टॉफी मुझे सबसे अधिक पसंद आती थी। इन्हें मैं अक्सर चूसना पसंद करता था।
इसका स्वाद तो मुझे पसंद तो था ही लेकिन कई बार मेरे साथ ऐसा होता था कि एक पैकेट में दो दो टॉफियाँ निकल जाती थी। अब तक जितनी टॉफियाँ मैंने खाई हैं उनमें से केवल यही ऐसी टॉफी थी जिसमें कभी दो, कभी डेढ़ टॉफी एक रैपर में निकली हैं।  जब ऐसा होता था तो दिन ही बन जाता था। ऐसा लगता था कि कोई खजाना मिल गया हो। ये तब और ज्यादा लगता था जब मेरे किसी दोस्त या मेरी बहन की उपस्थति में ऐसा हुआ हो। ऐसा होने पर वो हमें यूँ देखते थे जैसे भगवान हमें मिल गए हों और उन्हें छोड़कर उन्होंने अपना वरदान हमें दे दिया हो। सड़क पर पड़े पैसों के मिलने जितनी खुशी होती थी इसमें मुझे। 
बाद में एलपेनलीबे वालों ने दूसरे फ्लेवर में टॉफियाँ निकाली थी लेकिन उनका स्वाद इस भूरी वाली टॉफी जैसे कभी नहीं रहा। अपने लिए तो यही बेस्ट थी। 

अंडे 

टॉफियों की बात चल रही है तो  एक विशेष तरह की टॉफी मुझे याद आ रही है। यह किसी विशेष कंपनी द्वारा नहीं बनाई जाती थी। यह अंडे की आकार की टॉफी होती थी और हम इन्हें अंडा ही कहते थे। अलग अलग रंगों में यह आती थीं। सफेद रंग वाली को हम मुर्गी के अंडे कहते थे और आसमानी नीले रंग की जो होती थी उसे बतख के अंडे कहते थे। अब तो मुझे इन दो ही रंगों इसके याद हैं लेकिन हो सकता है कि और भी रही हों। इन्हें खाने में मुझे बड़ा मज़ा आता था। 

पान पसंद 

पान पसंद: तस्वीर स्रोत 

बचपन में पान पसंद भी काफी खाई जाती थी। इसका स्वाद सब टॉफियों से अलग सा ही होता था। साथ ही इसको खाने के पीछे एक कारण ये भी था कि जहां बाकी टॉफियाँ 50 पैसे से शुरू होती थी वहीं पान पसंद 1 रुपये की चार आ जाती थी। ऐसे में जब पास हो एक रुपये और खाने वाले चार तो पान पसंद ही एक लौता ऑप्शन बचता था। हाँ कई बार ज्यादा पान पसंद खा लो ये आपका तालू भी छील देती थीं। थोड़ा कठोर जो होती थी।

इस टॉफी की और खासियत ये थी कि गाँव से जब कोई बुजुर्ग आता था तो वो पान पसंद लाता था। इसका एक कारण शायद इसका दाम भी रहा हो। दो बच्चे हों तो उनके लिए दो दो टॉफी एक ही रुपये में आ जाती थी। लेकिन बुजुर्गों से इसे पाना भी किसी खजाने को पाने के समान ही हुआ करता था। 

 

अमेज़न लिंक: पान पसंद

किसमी बार और एक्लेयर्स

एकलैयर्स और किस मी बार

अगर चॉकलेट वाली टॉफी की बात की जाए तो किसमी बार और एक्लेयर्स  ही अक्सर हम लोग खाया करते  थे। किसमी बार जहाँ सॉफ्ट होती थी वहीं एक्लेयर्स थोड़ा कठोर होती थी। जब एक्लेयर्स को चबाया जाता था तो बड़ा मज़ा आता था। कुछ कुछ हार्ड सा शेल टूटकर जो अंदर भरी चॉकलेट होती थी वो जब एकदम से निकलती थी तो खाने का आनंद बढ़ा देती थी। इस टॉफी की एक खासियत ये भी थी कि अक्सर चबाते हुए इसके टुकड़े दाँत में अक्सर दाढ़ में  चिपक भी जाते थे। इन्हें छुड़ाने में दिक्कत भी होती थी। जीभ से निकालने की कोशिश करते रहो।  किसमी बार की बात की जाए तो इसका चॉकलेट बार भी आता लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी मैंने वो खाया हो। अपनी दुनिया तो टॉफी तक ही सीमत थी। 

ये दो टॉफियाँ इसलिए भी फेमस थी क्योंकि अगर क्लास में किसी बच्चे का जन्मदिन हो तो क्लास में बाँटने हेतु वो यही टॉफियाँ लाया करता था। 

अपनी बात करूँ तो मुझे उन दिनों एकलेयर्स काफी पसंद आती थीं। किसमी बार खरीद कर बहुत कम खाई होगी। हाँ किसी ने बर्थडे के टाइम दे दी तो खा लेता था। 

अमेज़न: एकलेयर्स | पान पसंद

स्वाद 

खाना पचाने वाली टॉफी की बात की तो स्वाद का अपना एक अलग स्थान था। यह भी बड़ी चटपटी होती थी और ये भी हार्ड होती थी। ज्यादा चूस लो तो तालू छिलने का खतरा इसमें भी रहता था। 

स्वाद भी हाजमोला को टक्कर दिया करती थी कभी। इसके विज्ञापन भी खूब आते थे। जहाँ बाकी टॉफियों के कवर रंग बिरंगे रहते थे वहीं अपने चांदी के शतरंज टाइप के धारीदार कवर के चलते ये थोड़ा गंभीर सी भी लगती थी। 

अमेज़न: स्वाद

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तो यह थी कुछ टॉफियाँ जो बचपन में मुझे पसंद थीं। बचपन गया तो टॉफियों  का ये प्रेम भी न जाने कहाँ गायब हो गया। अब तो इनमें से अधिकतर को खाए हुए काफी समय हो गया होगा लेकिन आज जब ये लिखने बैठा हूँ तो इनके स्वाद की याद से मुँह में पानी आने लगा है।  

आपके बचपन में कौन सी टॉफियाँ आपकी पसंदीदा थीं? क्या आप आज भी उन्हें खाते हैं? मुझे कमेन्ट के माध्यम से जरूर बताइएगा। 

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहत हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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