यह कबकी बात है ये तो ठीक तरह से याद नहीं। मैं तो बब्बू भैया छोटे छोटे ही थे। मैं शायद चौथी पाँचवीं में रहा हूँ और भैया शायद दसवीं में रहे होंगे। या हो सकता है हम दोनों ही किसी और कक्षा में रहे होंगे। हम पौड़ी रहते थे और हमारा पैतृक गाँव नैल वहाँ सत्तर अस्सी किलोमीटर से दूर है। गाँव पहुँचने के लिए दो रास्ते थे। पर दोनों रास्ते ऐसे थे कि जहाँ पर बस छोड़ती थी वहाँ से गाँव वाले घर पहुँचने के लिए काफी चलना पड़ता था। लगभग पाँच छह किलोमीटर या अधिक भी हो सकता था। एक और रास्ता था जो कि मिरचोड़ा की धार पर छोड़ता था जहाँ से गाँव तक का सफर केवल दो ढाई किलोमीटर ही था लेकिन वहाँ तक जाने के लिए गाड़ी बुक करनी पड़ती थी। गाड़ी बुक करने में खर्चा इतना आता था कि ये काम तभी होता था जब सात आठ रिश्तेदार वहाँ तक जाएँ। ऐसे में जब बब्बू भैया और मेरा प्लान गाँव जाने का बना तो हमने पौड़ी से बस से जाने का फैसला किया। बस से यह सफर हमने मुंडेश्वर तक किया।
वहाँ से उतरे और जंगल और गाँव के बीच से होते हुए गाँव के घर में पहुँचे। इसकी हल्की धुंधली सी याद मन में है। सड़क के नीचे से जो रास्ता जाता था वहाँ का जंगल। जंगल के रास्ते में आगे बढ़ते हुए एक जगह जहाँ खाली सी जगह थी और चारों तरफ जंगल था। उतरते हुए बीच में पड़ते गाँव और उनके लोग। ऐसे ही चलते रहे जब तक पहले मिरचोड़ा की धार तक नहीं पहुँचे और वहाँ से घर तक।
अब गाँव पहुँचे तो घर में दादाजी ही थे।
यकीन मानिए इस चीज के सिवा मुझे ये बिल्कुल याद नहीं है कि हम जितने दिन वहाँ रहे हमने क्या किया? बस ये याद है कि एक या डेढ़ दिन रहे थे।
लेकिन इस यात्रा की दो यादें अभी भी जहन में हैं।
पहली स्मृति जो मुझे याद है वो यह कि दादाजी ने घर के खेतों में प्याज उगाया था तो प्याज अच्छी खासी मात्रा में हो गया था। घर में एक कमरा था जहाँ काफी सारा प्याज रखा हुआ था। फिर जब हम घर जाने को हुए तो नाश्ते का समय आया। नाश्ते में दादाजी ने रोटी, चाय और प्याज की सब्जी बनायी थी। प्याज की सब्जी सूखी थी और उसमें जख्या डाला हुआ था। हल्की हल्दी भी डली थी। मुझे याद है कि उससे पहले प्याज की सब्जी मैंने खायी नहीं थी। वो पहली बार था मैं जब वो सब्जी खा रहा था तो घर के चूल्हे के पास से उठती मिट्टी की खुशबू, चाय, और रोटी और वह सब्जी मिलकर ऐसा स्वाद बना रहे थे जैसा न उस दिन तक मैंने खाया था और न उसके बाद ही कभी खाया। प्याज की सब्जी कई बार फिर बनी। लेकिन दादाजी की हाथ की बनी सब्जी वो नहीं थी। उसके बाद मौका नहीं लगा उनके हाथ का कुछ खाने का। मेरा गाँव जाना उतना नहीं हुआ। जब हुआ भी तो गाँव में दादी रहती या मम्मी साथ होती तो खाना बनाने की जिम्मेदारी उनकी ही होती। ऐसे में कभी मौका ही नहीं लगा कि दादा जी के हाथ की बनी वो सब्जी खा सकें। फिर वो गुजर ही गए तो वो सब्जी ही मन में बसी रह गयी।
इस यात्रा से जुड़ी जो दूसरी याद है वो भी खाने से जुड़ी है। अब हुआ यूँ कि जब हम गाँव से घर के लिए निकले तो दादाजी ने हमें पेड़ से तोड़कर कुछ फल दिए। इन फलों में दो पपीते भी थे। हमारे गाँव में फल जैसे आम, पपीते, केले, अखरोट, आड़ू, पुलम इत्यादि आसानी से लग जाते हैं। हमारे यहाँ भी ये लगते हैं। मुझे याद है कि एक बार जब गाँव गए हुए तो हमने पेड़ पर चढ़कर इतने पुलम खाए थे कि मेरा गला बैठ गया था। अगले दिन हमें कौथिक जाना था और मेरे गले के हाल ऐसे थे कि कुछ खाऊँ तो लगे कि उसमें खाने वाली चीज में ब्लेड है। किसी तरह हम कौथिक पहुँचे थे। उधर शायद दवाई मिली थी और मैं अगले दिन सुबह तक ठीक हुआ था। पर ये बहुत पहले की बात थी। अबकि बात तो ये थी कि हम पहुँचे हुए थे और फल लगे हुए थे। हम घर जाने को तैयार थे।
घर की उपज को लेकर दादाजी की एक पॉलिसी मुझे याद आती है। जहाँ तक मुझे याद है उनका कहना होता था कि उनका कहना होता था कि गाँव के फल, सब्जियाँ खानी हैं तो आओ, खाओ और लेकर जाओ। लेकिन मुझसे ये उम्मीद न करो कि मैं भिजवाऊँगा। ये अच्छी पॉलिसी भी थी। इसी बहाने कोई न कोई आता तो था ही।
ऐसे में जब हम इस बार पहुँचे थे तो उन्होंने हमें भी फल दिए। उस वक्त हम जवान थे और आगे के सफर से अंजान थे। फिर बचपन का जोश भी था। ऐसे में जब दादाजी ने पूछा कि पपीता ले चलोगे। तो हमने जोर से ऊपर नीचे मुंडी हिलाकर हाँ कहा। दादाजी ने भी ठीक ठाक साइज़ का पपीता हमें दे दिया। डेढ़ दो किलो का रहा होगा। उसके अलावा हमारा अपना सामान था और साथ में दूसरी छोटी मोटी चीजें भी दादाजी ने दी थी।
हम खुश थे। दादाजी का आशीर्वाद लिया और निकल पड़े घर के सफर के लिए। इस बार हम दूसरे रास्ते जाने वाले थे जो कि बगल के गाँव कसरा से होकर जाता था। (इस रास्ते का हल्का सा प्रयोग मैंने अपनी एक कहानी रैबार में भी किया है। अगर आपने कहानी नहीं पढ़ी है तो यहाँ क्लिक करके उसे पढ़ सकते हैं। ) चलना तो उधर भी पाँच छह किलोमीटर होता था लेकिन वहाँ का रास्ता उतना चढ़ाई वाला नहीं था जो कि मुंडेश्वर वाला होता। इसलिए आते हम मुंडेश्वर से थे और जाते इस रास्ते से थे। ऐसे में हमारे लिए सफर कदरन आसान होने वाला था। यही तो सोचा था हमने।
कितने नादान थे न हम।
हमने जोश में चलना शुरू। एक डेढ़ किलोमीटर तो हम ठीक ठाक चलते रहे। लेकिन फिर धीरे धीरे कदम उठाना भारी पड़ने लगा। हम जो फल और दूसरी चीजें घर से लाए थे वो अब भारी लगने लगी थी। मुझे याद आ रहा है कि चलते चलते हम जिस रास्ते पर बढ़ रहे थे उधर बांस के पौधे भी थे या इसी तरह के लंबे पौधे थे जो झाड़ियाँ जैसी थीं। हम बढ़ते जा रहे थे और ये ही सोच रहे थे कि क्या किया जाए।
आखिर जब कदम उठाना भारी हो गया तो मैंने और भाई ने अपने अपने बैग खोले। बैग के अंदर पीले रंग के पपीते हमें चिढ़ाते से महसूस हो रह थे। लग रहा था जैसे कह रहे हों कि बच्चू है हिम्मत तो उठाकर ले जाओ हमें। बड़े नैल से पौड़ी ले जाने वाले बने थे तुम। हमने बैग को देखा और फिर एक दूसरे को देखा। इसके बाद बब्बू भैया ने ऐसा प्रश्न किया जिसका जवाब उन्हें पता था कि ना में होगा।
उन्होंने कहा, “तेरे पास चाकू है क्या?”
चाकू कहाँ से होगा, दर्शाने के लिए मैंने अपने कंधे उचकाये।
“हाँ मेरे पास भी नहीं है,” उन्होंने कहा। फिर सोचकर बोले, “अगर होता तो एक पपीता खा ही लेते। थोड़ा भार हल्का हो जाता।”
“वापस भी नहीं जा सकते। स्कूल भी जाना है।”, मैं बोला।
पता हम दोनों को था कि क्या करना है लेकिन हम चाह रहे थे कि दूसरा व्यक्ति ये आइडिया दे ताकि मन में ग्लानि न हो और ये लगे कि हम तो भई ले ही आते। सामने वाला था जो हार मान गया।
“पत्थर से तोड़े?”, बब्बू भैया ने नया आइडिया दिया।
“खराब नहीं होगा”, मैंने विरोध किया।
“फिर क्या करें? छोड़ दें इधर ही?”, उन्होंने अब प्रश्न के रूप में उपाय बताया।
“हाँ। कर भी क्या सकते हैं। थोड़े छोटे होते तो ले जा लेते। “
“घर में बताएँगे ही नहीं कि पपीते भी थे।” भैया बोले।
“दादा जी?”
“पूछेंगे तो कहेंगे चलते चलते भूख लग गई थी तो खा लिए। ”
मैंने सहमति में सिर हिलाया और फिर अपने बैग से पपीता निकाल दिया। भैया ने भी ये काम किया। और फिर हमने अपने अपने बैग की चैन निकाल दी। जहाँ पर हम थे वो एक संकरा रास्ता था जिसके एक तरफ पहाड़ था तो दूसरे तरफ खाई सी थी। हमने अपने अपने पपीते लिए और भारी मन से दोनों पपीते खाई में फेंक दिए।
फिर हम घर के रास्ते की तरफ बढ़ चले। अब हमारे चाल कुछ ऐसी थी जैसे कदमों में स्प्रिंग लगे हों।
“अब सही लग रहा है न?”, भैया ने पूछा।
मैं जवाब में मुस्करा दिया। भैया भी मुस्करा दिए। हम दोनों ही जानते थे कि घर तक पपीते वाली बात शायद ही कभी पहुँचेगी। अगर दादाजी ने कभी पूछा तो हम दोनों ही कह देंगे कि रास्ते में भूख लगी थी तो खा लिए।
उस दिन मैं पपीते तो खाई में फेंक आया था लेकिन एक मीठी याद अपने साथ ले पाया था। उस प्याज की सब्जी की। मुझे लगता है कि खाने की बात हो तो ये जरूरी नहीं कि स्वाद ही अच्छा हो तो वो याद रह जाए। कभी कभी परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं कि वह सादे से सादे खाने को आपके लिए बहुत स्वादिष्ट बना देती है। इसके बाद आप बार बार उस स्वाद की तलाश में इधर उधर विचरते हो लेकिन आपको वो स्वाद मिल नहीं पाता है। बहरहाल, एक अनुभव एक मीठी याद आपके मन में रहती है जिसके विषय में सोच कर आपका मन भीग जाता है। जैसे मेरा भीगा हुआ है। आज भी उस प्याज को याद करता हूँ और दादाजी को भी। उनका चेहरा आँखों के सामने आ जाता है और जबान प्याज की उस सब्जी की याद करके लार छोड़ देती है।
नोट: ऊपर तस्वीर में दिखता घर हमारा गाँव का घर है। जब 2021 में घर गया था तब ये तस्वीर ली थी।
Written For #BlogchatterFoodFest
दिलचस्प संस्मरण।
संस्मरण आपको दिलचस्प लगा जानकर अच्छा लगा, हरीश भाई…
Aaj purani yaden taja ho gayi..Thanks vics .
जी..मेरी भी लिखते हुए यादें ताज़ा हो गई थीं…