बक्सटाउन सराय का प्रेत – अर्नाल्ड एम एंडरसन

बक्सटाउन सराय का प्रेत - अर्नाल्ड एम एंडरसन

(Arnold M Anderson की कहानी GHOST OF BUCKSTOWN INN का हिन्दी अनुवाद)

सफर से थके कुछ ढोल बजाने वाले होटल की लॉबी में बैठकर गप्पे मारने में मशगूल थे। अपनी थकावट को दूर करने का उनका यह एक तरीका था। अब रॉडनी ग्रीन की बारी थी। उसने संजीदा शक्ल अख्तियार करी और फिर अपनी आप बीती सुनाने लगा।

“मैं यह तो नहीं कहता कि अर्कन्सास में भूतों पर विश्वास किया जाना साधारण बात है, पर हाँ इतना कह सकता हूँ कि मुझे उधर कुछ सालों पहले एक ऐसा तजुर्बा हुआ था।”

वो पतझड़ के मौसम के आखिरी दिन थे और मैं बक्सटाउन नाम के गाँव में मौजूद था। बक्सटाउन एक छोटा सा गाँव था जिसके बराबर गंदा गाँव आजतक मैंने नहीं देखा था। बक्सटाउन की सराय के हालात भी गाँव से बेहतर नहीं थे। यहाँ के रहने वाले ज्यादातर ऐसे मूलनिवासी थी जो अभी भी बेवकूफों की तरह अंधविश्वासों को मानते थे। गृह युद्ध (सिविल वार) के दौरान  इस सराय को एक बहुत ही ज्यादा नीच और असभ्य व्यक्ति चलाता था। उसके विषय में कहा जाता था कि वो जितना रूखा था उतना ही बड़ा  कंजूस भी था और अपनी ज़िन्दगी में उसने अपने पैसों को ऐसे रखा जैसे किस्से कहानियों में शैतान खजाने को सीने से चिपकाकर रखा करते हैं। कहा तो यह भी जाता था कि उसने सराय में आने वाले कई यात्रियों को उनके पैसों की खातिर उनके बिस्तर पर ही मौत के घाट उतार दिया था। यह सब सुनी सुनाई बातें थी जो कि उस सराय के विषय में अक्सर कही जाती थी। असल में क्या हुआ था इसके विषय में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं थी। लेकिन आजतक यह उस सराय के विषय में कहा जाता था कि उधर कुछ न कुछ तो गड़बड़ थी। उसके अंदर जो भी क्रूर और बुरे काम हुए थे उनकी छाया से आजतक वह सराय बाहर नहीं आ पाया था। और इस कारण एक तरह का अजीब सा अहसास वहाँ रहने वाले लोगों को आज भी होता था।

परन्तु यह सब इस सराय के गुजरे वक्त की बात थी। जब मैं उधर गया था उस वक्त वह  सराय बंक वाटसन, जिसका असली नाम शायद बंकर था, चलाता था। बंक का किरदार सराय के मूल मालिक से बिल्कुल अलहदा था। वह एक दक्षिणी की तरह था – असल में वह उन बिंदास, हँसमुख लोगों में था जिन्हें अच्छी व्हिस्की पसंद होती है और जो तम्बाखू का बड़ा हिस्सा चबाने के साथ साथ पाइप पीने के भी आदि होते हैं। यानी ज़िन्दगी का पूरा मजा लूटने में विश्वास रखते हैं।

जब इस सराय का मूल मालिक चल बसा तो इस सराय का मालिकाना हक उसके दूर के रिश्तेदार, जो कि अब मालिक था, के पास आ गया और वह अपने परिवार के साथ पड़ोस के खेड़ा(छोटे गाँव) से आकर इधर रहने लगा। यह बात सबको पता थी कि पुराने मालिक ने अपनी ज़िन्दगी में इधर खूब मोटी कमाई की थी लेकिन कई कोशिशों के बाद भी किसी को कुछ हाथ नहीं लगा था। उस तथाकथित खजाने की चाह को सबने तिलांजली दे ही दी थी। जहाँ तक बंक का सवाल था उसे इस बात की कोई चिंता ही नहीं थी। उसके पास एक मेहनत करने वाली पत्नी थी जो कि सराय का संचालन करती थी और यह बात सुनिश्चित करती थी कि बंक को दो वक्त की रोटी मिलती रहे। इसके अलावा बंक को ज्यादा कुछ नहीं चाहिए था। इधर कोई खजाना छुपा होगा इस बात की फ़िक्र करने की उसे कोई जरूरत महसूस नहीं होती थी। अगर इधर छुपा हुआ खजाना उसे मिल भी जाता तो भी उसे यह समझ नहीं आता कि वह इतनी दौलत का क्या करे? उस दौलत का क्या करना है शायद इस निर्णय के लिए भी वह अपनी पत्नी के ऊपर निर्भर रहता ।

बक्सटाउन सराय के इतिहास से जुड़े कई किस्सों में से एक किस्सा एक प्रेत का भी था। जिस कमरे में पुराने मालिक की मृत्यु हुई थी उधर से देर रात में कुछ अजीब सी आवाजें सुनाई देती थीं। किसी के आहें भरने की आवाज़, किसी के कराहने की आवज़ और ऐसी कई चीजें उधर होती थी जिससे लगता था कि उस कमरे में किसी न किसी  प्रेत का निवास है। इसी कारण से उस कमरे में अब कोई नहीं जाता था और उसे राहगीरों के लिए बंद कर दिया गया था।

मैं उस कमरे से जुड़े किस्सों को बहुत ध्यान से सुन रहा था। मुझे वह रोचक लग रहे थे और इसी कारण मैंने इस बात की तह में जाने का मन बना लिया था। मैंने फैसला कर लिया था कि मैं उस कमरे में जाकर रात गुजारूँगा और उस कमरे में मौजूद प्रेत को अपनी आँखों से देखूँगा। मैंने बंक को अपने इस फैसले के विषय में बताया। उसने अपनी गर्दन को हिलाया, अपने कन्धों को उचकाया और मुझे आगाह करने और अपने निर्णय से डिगाने की जगह, अपने पाइप को अपने मुँह से निकाला, अपने तम्बाखू से सने भूरे होंठों से बीचे से तम्बाखू के पीले रस के छीटों को उड़ाते हुए उसने अपने होंठों को अलसाए तरीके से कम से कम खोलकर एक आवाज़ दी, ‘जेन’

उसकी पत्नी प्रकट हुई और उसने मुझे बताया कि इस विषय में उसे उसकी पत्नी से बात करनी चाहिए। उसकी पत्नी को अपनी बात समझाने के लिए मुझे कुछ और धन खर्च करना पड़ा और उसके पश्चात वह उस भूतहा  कमरे में मेरा बिस्तर लगाने के लिए चली गई।

उस शाम की नौ बजे मैंने उस परिवार से विदा ली और अपनी मोमबत्ती उठाकर, चरमराती सीढ़ियाँ चढ़कर उस खौफनाक कमरे में दाखिल हुआ। कमरे के वातावरण में मुझे एक तरह का भारीपन महसूस हो रहा था और एक अजीब सी दुर्गंध मेरे नथुनों से टकरा रही थी।  खैर, मैंने अब दरवाजे की कुण्डी लगाई और जल्द ही अपने बिस्तर में दाखिल हो गया। मैंने अपनी पीठ को तकियों से टिकाया और अब मैं प्रेत के आने का इन्तजार करने लगा।

मैंने छत की तरफ देखा।  ऊपर कुछ धूल से सनी कड़ियाँ थी जिनपर कभी पुताई हुई होगी लेकिन अब वह गन्दी, देखरेख  के बिना हल्का पीला पन लिए और जालों से घिरी हुई थी। मोमबत्ती की झिलमिलाती लौ की रोशनी से दीवारों और छत पर विकृत आकृतियाँ उभर रही थीं। हिलते हुए मकड़ी के जाले और दीवार पर उभरती ये विकृत आकृतियाँ इस कमरे को रहने वाले के मन में, विशेषकर जब वह अच्छी कल्पनाशीलता का मालिक हो,एक अजीब सा भय पैदा कर सकती थी।

मैंने इन्तजार किया और ऐसा लगा जैसे घंटो इन्तजार किया, लेकिन मुझे किसी प्रेत के आने का एहसास नहीं हुआ। शायद वह मेरी मोमबत्ती की रोशिनी से डर रहा था और इसलिए मैंने अपनी मोमबत्ती की लौ को बुझा दिया। मैं मोमबत्ती की लौ बुझाकर अपने बिस्तर पर बैठा ही था कि मुझे दरवाजे से एक सफ़ेद हाथ सा आता दिखा। उसके बाद ही पूरी आकृति दरवाजे को पार करके मेरे कमरे में दाखिल हो गई थी। आखिरकार प्रेत आ गया था –  एक सफ़ेद रंग लबादे से ढका  प्रेत।

भले ही दरवाजे की कुण्डी लगी हुई थी लेकिन फिर भी वो उससे बिना रुकावट के अंदर आ गया था और अब वह बिस्तर की तरफ बढ़ रहा था। अपने लम्बे और पतले हाथ को उठाते हुए उसने अपनी पतली उँगली से मेरी तरफ इशारा किया और फिर बोला- “मेरे साथ आओ!”

इसके पश्चात वह दरवाजे की तरफ मुड़ गया जबकि मैं उसका पीछा करने के लिए बिस्तर से बाहर कूद गया। कोई अदृश्य शक्ति मुझे उसकी बात मानने के लिए विवश कर रही थी। दरवाज़ा झटके से खुला और वह प्रेत  सीढ़ियों की तरफ बढ़ने लगा। सीढ़ियों से उतरकर वह मुझे लम्बे कमरों से होते हुए किन्हीं तहखानों में और उसके पश्चात कुछ रहस्मय भूमिगत गलियारों से होते हुये ऊपर की मंजिल में लाकर कई ऐसे कमरों के अंदर बाहर ले गया जिनके होने की कल्पना भी मैंने इस सराय में नहीं की थी। आखिरकार इमारत के पीछे के हिस्से में मौजूद एक छोटे से दरवाजे से होते हुए हम इमारत के बाहर निकले। बाहर ठंड थी और मैंने सोने के लिए हल्के कपड़े ही पहने हुए थे लेकिन मुझे इसकी चिंता नहीं थी। मेरे मन में केवल उसका पीछा करने का ख्याल ही प्रबल था।
   
वह सफेद आकृति धीमे परन्तु नपे तुले कदमों और मौत की तरह शान्ति से चलते हुए मुझे एक बाग़ में लिए जा रही थी। उधर बाग़ के दूर के हिस्से में पहुँचकर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर उसने जमीन की तरफ इशारा किया और उसी पहली जैसी  भूतहा आवाज़ में कहा : “इधर तुम्हे एक खज़ाना गड़ा मिलेगा।”

उसके बाद वह प्रेत अचानक गायब हो गया और मैंने उसके बाद उसे नहीं देखा। मैं उधर आश्चर्यचकित हुआ खड़ा था और काँप रहा था। जब मेरे होशो हवास ठिकाने आये तो मैंने जमीन को खोदना शुरू किया लेकिन रात की हाड़ कँपाती ठंड और मेरे हल्के फुल्के कपड़ों ने यह काम दुष्कर बना दिया। अतः मैंने यह निर्णय किया कि मैं उधर कुछ निशान छोड़ दूँगा ताकि इस जगह को पहचान सकूँ और दिन के उजाले में आकर खुदाई के काम को अंजाम दूँगा। मैंने पेड़ की तरफ बढ़कर एक टहनी तोड़ी और उससे जगह पर निशान बनाया। रात को मेरे साथ जो हुआ था उसने मुझे इतना थका दिया था कि सुबह मेरी नींद अपने दरवाजे पर होती तेज थपथपाहट और एक खुरदरी आवाज़, जो दरवाजे के बाहर खड़ी होकर मुझे यह बता रही थी कि दिन निकल आया है, के शोर के  पश्चात ही खुली।

पहले मेरी योजना इसी दिन बक्सटाउन सराय को छोड़ देने की थी लेकिन अब अपनी उत्सुकता और इस मामले की और तहकीकात करने के इरादे से मैंने अपना सामान खोला और इधर कुछ दिन और रहने का फैसला कर दिया।

तुम लोगों को मालूम होना चाहिए कि यह प्रेतों के साथ मेरा पहला अनुभव था और मुझे डर था कि कहीं यह  मेरा आखिरी अनुभव न हो।

नाश्ते में मेरी मकान-मालकिन ने मुझसे कुछ बात नहीं की और एक बार मैंने महसूस किया कि उसकी आँखें मुझे अजीब तरह से देख रही हैं। वह मुझसे शायद मेरी रात के अनुभव के विषय में पूछना चाह रही होगी लेकिन मैं खुद इस विषय का जिक्र करके उसकी उत्सुकता को शांत नहीं करना चाहता था।

मेरा मेजबान इस मामले में ज्यादा मुखर था: “लगता है रात को तुम्हें ठीक से नींद नहीं आयी,” उसने एक अजीब सी मुस्कराहट के साथ कहा।

“क्या तुम्हे कुछ सुनाई दिया?” मैंने उससे पूछा।

“हाँ, कुछ सुनाई तो दिया था” उसने धीरे धीरे बोला,”लेकिन उस बात ने मुझे ज्यादा तकलीफ नहीं दी। तुम्हे उधर कुछ न कुछ परेशानी होगी मुझे इस बात का पता तभी लग गया था जब तुमने उधर सोने का मन बनाया था।”

उस दोपहर को मैं उस पेड़ के पास गया। लेकिन मेरे आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि जो टहनी मैंने तोड़ी थी वह अपने स्थान से गायब थी। आखिर एक सेब के पेड़ के नीचे मैंने एक ऐसी जगह खोज ली जहाँ से एक छोटी टहनी उखाड़ी गई थी। लेकिन जब मैंने आस-पास देखा तो पाया कि सभी सेब के पेड़ों से ऐसे ही टहनी तोड़ी गई थी।

“अब रहस्य गहराता जा रहा है” मैंने खुद से कहा,”लेकिन आज रात को फैसला होकर रहेगा।”

उस रात मैंने थकान का बहाना किया, जिसके विषय में सौभाग्यवश किसी ने कोई जायदा सवाल नहीं किये, और मैं अपने कमरे में जाने लगा।

“आज दुबारा कोशिश करने का इरादा है?” बंक ने मुझसे प्रश्न किया।

“हाँ। अगर मुझे पूरा सर्दी का मौसम भी इधर बिताना पड़े तो मैं बिताऊंगा लेकिन उस प्रेत की खबर लेकर रहूँगा।” मैंने अपना निर्णय सुनाया।

उस रात मैंने मध्यरात्री तक मोमबत्ती जलाकर रखी और जैसे  मैंने उसे बुझाया। उसी वक्त मेरे कमरे में हल्की सी रोशनी हो गई और पल भर में मेरे बिस्तर के पैताने की तरफ वह प्रेत खड़ा था, वही प्रेत जो पिछली रात मेरे पास आया था।

दोबारा एक पतली सी ऊँगली ने मुझे इशारा किया और एक खौफनाक आवाज़ फुसफुसाई, ”मेरे साथ चलो।”

मैंने बिस्तर से उसकी तरफ कूदा लेकिन वह आकृति मेरे आगे आगे भागने लगी। वह दरवाजा चीरते हुए भागी और सीढियाँ उतरने लगी। मैं उसका पीछा करने लगा। सीढ़ियों के अंत में एक अदृश्य हाथ कहीं से आया और उसने मेरे पैर को पकड़ा और मैं मुँह के बल जमीन पर गिरा।

लेकिन अगले ही पल मैं दोबारा अपने पैरों में खड़ा था और उस प्रेत का पीछा कर रहा था। वह मेरे से कुछ गज आगे भाग रहा था लेकिन मैं उससे तेज दौड़ रहा था। जैसे ही हम लोग बाहरी दरवाजे के निकट पहुँचे उसका लबादा मेरे हाथ में लगा। इससे मेरे शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ गई और एक पल के लिए डर के मारे मैंने पीछा करने का ख्याल मन से निकाल दिया।

जैसे ही वह गलियारे से पार हुआ उसने मुझे मुड़कर देखा और मुझे उसकी आँखों में वही घातक चमक दिखी जिसे मैंने एक रात पहले भी देखा।

बाहर खुले बगीचे में मुझे पूरा यकीन था कि मैं उसे पकड़ लूँगा।

लेकिन उस प्रेत की मुझे ऐसा कोई अवसर देने की इच्छा मुझे नहीं दिख रही थी। मुझे हैरत में डालकर, वह पीछे की तरफ हुआ और सराय के अंदर भागा। भागते हुए उसने दरवाजे को तेजी से मेरे चेहरे पर पटका।

अपने डर और हैरत के उन्माद में मैंने उस बलूत(ओक) के दरवाजे पर इतनी जोर से टक्कर मारी कि उसके पुराने जोड़ों ने जवाब दे दिया और मैं एक बड़े से कमरे में दाखिल हुआ। घुसते हुए मैं प्रेत के सफेद लबादे को ऊपर की मंज़िल की तरफ लहराते हुए ही देख पाया।

मैं उसके पीछे ऊपर की मंजिल की तरफ भागा। वह  उधर कोने में उकडू बैठा था। उसे देखने में मुझे कुछ वक्त लग गया था। इतने समय में उसने एक जलती मोमबत्ती का जुगाड़ कर लिया था और जैसे ही मैं आया वह अपना सीकड़ी सा हाथ उठाये मुझे डराने के लिए मेरी तरफ बढ़ा।

“पकड़ लिया” ,मैं चिल्लाया और अपनी बाहों को उस चीज/आकृति को घेर लिया था। आखिरकार मैं एक असली प्रेत से मिल रहा था।

सफ़ेद लबादा गिरा और मेरे सामने बक्सटाउन सराय की मालकिन खड़ी थी।

अगली सुबह जब मैंने पुलिस को बुलाने की धमकी दी तो उसने अपना गुनाह क़ुबूल किया। उसने कहा कि भूत बनकर नाटक इसलिए करती थी ताकि इस पुरानी जगह पर पर्यटकों को ला सके। उसने यह समझ लिया था कि इस सराय के भूतहा होने की कहानी सुनकर लोग अक्सर इधर आते थे और ऐसा होना उनके लिए काफी फायदेमंद रहता था।

                                                                समाप्त

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© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहत हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “बक्सटाउन सराय का प्रेत – अर्नाल्ड एम एंडरसन”

  1. बहुत ही बेहतरीन अनुवाद, आपने कहानी भी खासी रोचक चुनी अनुवाद के लिये, नए लेखक(पहले कभी पढ़ा नहीं है इनका कोई नावेल या कहानी और नाम से भी आज ही परिचित हुआ हूँ) और इतनी उम्दा कहानी से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद।

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