सुबह मेरी नींद खुली तो देखा राकेश भाई पहले ही उठ गये थे और बिस्तर से गायब थे। उनकी साथ की गयी हर यात्रा में अक्सर यही होता है। राकेश भाई जल्दी उठ जाते हैं और मैं लेटा ही रहता हूँ। आज भी यही हुआ था लेकिन हमे आज निकलना था। आठ बजने वाले थे। शनिवार को ही मेरी मेरे एक दोस्त से बातचीत हो गयी थी। वह दोस्त रुद्रपुर में रहता था तो मैंने उससे रामनगर आने को कह दिया था। मैंने उससे कह दिया था कि मैं उससे रामनगर के नजदीक पहुँचने पर सम्पर्क करूँगा।
मैंने गूगल से कौसानी से रामनगर की दूरी देखी थी तो एक सौ पैंतीस किलोमीटर दिखा रही थी। मुझे यकीन था कि अगर हम जल्दी ही रूम से निलकते हैं तो शाम दो ढाई बजे तक तो रामनगर पहुँच जायेंगे। डेढ़ सौ दो सौ किलोमीटर का सफर करने में तीन या चार घंटे ही तो लगते। मैं न जाने किस सोच में यह गणना कर बैठा था। जल्द ही मेरे आँखों में लगी यह पट्टी उतरनी थी। मैंने दोस्त को इत्तला की और फ्रेश होने चला गया।
राकेश भाई फोटो खींचने जा रखे थे। मैं जल्दी जल्दी फ्रेश हुआ, मैंने चाय का आर्डर दिया और फिर बैठकर राकेश भाई के आने का इंतजार करने लगा। चाय आई और मैं चाय चुसकते हुए उपन्यास पढ़ने लगा। चाय खत्म हुई और उपन्यास का अध्याय भी खत्म हुआ। फिर मैंने अपना सामान बाँधना शुरू कर दिया।
इतने में राकेश भाई भी लौट आये थे। वो तस्वीर लेने छत पर थे और आकर वो सूर्य की रौशनी में चमकते हुए पहाड़ का बखान करते नहीं अघा रहे थे। रूम में आकर वो बिस्तर में घुस गये। मैंने उनकी बिस्तर में घुसे हुए तस्वीर खींची और फिर उन्हें लेट करने के लिए ताना मारा। ताना मारने के बाद मुझे लगा कि मैंने कर्तव्य का पालन कर दिया है। अब मैं संतुष्ट था। अब लेट भी होते तो कोई मुझे जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता था। वैसे भी यह तो निश्चित था कि रामनगर वाली बस पकड़ने वाले मामले में चिड़िया खेत चुग कर काफी दूर निकल चुकी थी। अब तो जैसा होता वैसे भुगतना था। राकेश भाई की फोटो खींचने के बाद मैं बालकनी की तरफ बढ़ गया।
धूप निकली हुई थी लेकिन मौसम में थोड़ी ठंडक मौजूद थी। इस कारण मौसम सुहावना हो रखा था। शरीर में पड़ती सूर्य की किरण राहत पहुँचा रही थी। हमारे बगल के कमरे में सैलानी आ रखे थे। वो बालकनी में खड़े होकर वो ख़ुशी से चिल्ला रहे थे तो मुझे उनके होने का अहसास हुआ था। नये जोड़े लग रहे थे और बहुत चहक रहे थे। चिड़ियों की चहचहाहट के साथ उनकी चहचहाट घुलकर एक सुन्दर से वातावरण का निर्माण कर रही थी। थोड़ी देर मेरा उधर ही रहकर इस वातावरण को सोखने का मन था तो मैं उधर रुक गया। बालकनी में खड़ा हो आस पास नजर फिराने लगा और नजारों को स्मृतियों में कैद करने लगा। ऐसे में मेरी नज़र नीचे होटल के लॉन पर गयी।उधर कटाई छटाई का कार्य चालू था। घास से लिखा विशाखा पैलेस जो पहले धुंधला सा हो गया था वो अब घास कटने के कारण साफ दिखने लगा था।
मैंने उसकी भी एक तस्वीर ली और फिर अंदर पहुँच गया। मैंने राकेश भाई को जल्दी तैयार होने को कहा और जब तक वो तैयार हुए तब तक बैठा आराम से उपन्यास के पृष्ठ पलटता रहा। सुबह उठकर चाय पीते हुए उपन्यास के पन्ने पलटने से बेहतर कुछ नहीं होता है। मेरा भी चाय पीने का मन कर तो रहा था लेकिन मैंने चाय नहीं मंगवाई। राकेश भाई के तैयार होते ही हमने छत पर नाश्ता करने जाना था और इसलिए अब चाय मँगवाने का कोई तुक नहीं था।
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राकेश भाई रजाई का आनन्द लेते हुए |
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होटल का लॉन चमका दिया है |
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कौसानी की एक सुबह |
राकेश भाई तैयार हुए तो हम जाने के लिए तैयार थे। अपना सामान मैंने पहले ही बाँध लिया था। जाने से पहले हमने रजाई को तह किया और फिर उसे फोल्ड करके किनारे रख दिया। यह सुनिश्चत किया कि कमरे में कुछ रह नहीं गया था और जब यह सुनिश्चित हो गया तो कमरे से सामान लेकर छत पर पहुँच गए। साढ़े नौ हो चुके थे। छत पर टेबल लगी हुई थीं और हमारा उधर ही नाश्ता करने का विचार था। हम ऊपर पहुँचे। हमने आर्डर दिया। मैंने चाय, ऑमलेट और पराठे का आर्डर दिया वहीं राकेश भाई ने कॉफ़ी, पूरी सब्जी का आर्डर दिया। जब तक नाश्ता आया तब तक हमने इधर उधर के चित्र उतारे और नाश्ता आने पर नाश्ता करने में मशगूल हो गये। भूत लगी थी और नाश्ता स्वादिष्ट था तो खाने में मजा आ गया।
नाश्ता करने के पश्चात हमने होटल का बिल चुकाया और फिर निकलने के लिए रेडी हो गये। होटल के एजेंट साहब आ गये थे और उन्होंने हमे मार्किट तक छोड़ने का ऑफर दिया लेकिन हमने उन्हें मना कर दिया। चलते हुए जाने का अपना मजा था। वैसे भी हमे देर तो ही गयी थी। दस बज चुके थे।
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तह किये हुई रजाइयों को तह करने की एक्टिंग करते राकेश भाई |
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छत पर मौजूद पौधे महाराज |
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होटल की छत जहाँ नाश्ता किया |
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नाश्ता – पराठे ऑमलेट और पूरी सब्जी |
चलते चलते ही हम लोग मार्किट पहुँचे।
हमे यह तो पता था कि जो रामनगर वाली गाड़ी थी वो निकल गयी होगी लेकिन तब तक मैंने यह भी देख लिया था कि रानीखेत से ही हमे रामनगर के लिए बस मिल जाएगी। अब हमे ऐसा करना था कि किसी तरह रानीखेत पहुँचना था। हम बाज़ार आये तो उधर टैक्सी वाले लोग खड़े थे। हमने एक भाई से से बस के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि बस निकल गयी है और उन्होंने यह भी बताया कि अगर हम चाहें तो वो हमे सोमेश्वर तक छोड़ देंगे जहाँ से हमे बस मिल जाएगी। यह सुनकर राकेश भाई और मेरी नजरें मिली और हमने उनसे रेट के विषय में पूछा। हमे बताया गया कि हमे इसके लिए पूरी गाड़ी बुक करनी होगी। गाड़ी बुक करने में पैसे ज्यादा लग रहे थे तो हमने किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट के आने का इन्तजार करना ही सही सोचा। टैक्सी ड्राईवर भाई ने भी हम पर ज्यादा दबाव नहीं डाला।
हम थोड़ी देर इन्तजार करते रहे तो एक दो लोग सोमेश्वर जाने वाले आ गये। यात्री इकट्ठा हुए तो और उन्हीं टैक्सी ड्राईवर ने हमे अब साथ चलने को कहा। यह हमारे लिए अच्छा था क्योंकि किराया साधारण ही लिया जाने वाला था।अब हम टैक्सी में बैठे सोमेश्वर की तरफ को बढ़ गये।
टैक्सी वाले भाई ने सही गति से गाड़ी चलाई और इसका नतीजा यह हुआ कि जब हम सोमेश्वर पहुँचे तो रामनगर वाली गाड़ी हमे उधर रुकी हुई मिली। वह बस चलने ही वाली थी। हमने टैक्सी का किराया अदा किया और झट से रामनगर वाली गाड़ी में बैठ गये। गाड़ी में बैठकर हमने अपनी किस्मत को सराहा क्योंकि हमे अब रानीखेत से अलग से गाड़ी पकड़ने की जरूरत नहीं पड़ने वाली थी। बारह बजे का करीब वक्त रहा होगा। सोमेश्वर से रामनगर डेढ़ सौ किलोमीटर से भी कम था और गूगल की माने तो हम लोग तीन चार घंटे में रामनगर पहुँच सकते थे। जब मैं बस में चढ़ा था तो मुझे लगा था ज्यादा से ज्यादा पाँच घंटे में हम रामनगर होंगे लेकिन मुझे क्या पता था कि हर चीज गूगल के हिसाब से नहीं होती है।
सोमेश्वर से रामनगर का सफर शुरू हुआ। लोग चढ़ते रहे और उतरते रहे। बीच में एक बार कुछ लड़के चढ़े जो कि शायद कहीं क्रिकेट खेलने जा रहे थे। शायद दूसरी टीम के साथ उनका मैच था। आपस में हँसी ठट्ठा करते हुए सफर कर रहे थे। कंडक्टर से भी मजाक उनका चले जा रहा था। मैं सीट पर विराजमान हो कभी उन्हें देखता और कभी सड़क के बगल में नजारे देखता। सड़क के बगल में दुकाने थे और दुकानों के पीछे कुछ खेत थे। जैसे पौड़ी पहाड़ी इलाका है और श्रीनगर घाटी वाला इलाका है वैसे ही सोमेश्वर इधर के आस पास के पहाड़ी इलाकों के लिए घाटी है। जब सोमेश्वर का बाज़ार मैंने देखा था तो एक ख्याल मन में आया था कि पहाड़ों के बनिस्पत घाटी वाले इलाके आर्थिक व्यवस्था का केंद्र रहे हैं। श्रीनगर भी इस मामले में काफी माना हुआ है और सोमेश्वर को देखकर भी यही लग रहा था। क्या हिमाचल या उत्तर पूर्वी पहाड़ों के साथ ऐसा होता होगा? आपको क्या लगता है?घाटी और पहाड़ के बीच फर्क के विषय में सोचते हुए मेरी सोच उन खिलाड़ियों की तरफ भी जा रही थी। मैं बचपन में खेल कूद में इतना सक्रिय तो नहीं था लेकिन मेरे बड़े भाई(बड़ी ताई जी के बड़े लड़के) क्रिकेट में काफी सक्रिय थे। जब तक वो बी एस सी करते रहे तब तक अपनी टीम के साथ क्रिकेट खेलने इधर से उधर जाते रहे। पौड़ी के कन्डोलिया ग्राउंड में तो उनके मैच होते ही थे लेकिन उसके अलावा कई गाँवों में और दूसरे कस्बों में वो टूर्नामेंट के लिए जाते थे। इन लड़कों को देख मेरे मन में यही आ रहा था कि वो लोग भी इन्हीं की तरह जाते रहे होंगे। मैं इन्हीं सोचों में डूबा था कि उन लड़कों की मंजिल आ गयी और उधर उतर गये।
गाड़ी ऐसे ही बढती रही और मैं कभी बाहर देखकर, कभी सोकर और कभी अपने पास किंडल में मौजूद किताब को पढ़कर समय व्यतीत करता रहा। अभी तक मेरे मन में यह उम्मीद थी कि शाम को दोस्त से मिलना हो ही जायेगा। बस चलती रही और हम धीरे धीरे रानीखेत भी पहुँच गये। सवा एक हो चुका था।रानीखेत पहुँचते हुए मेरे मन में यह मलाल जरूर था कि हम लोग इधर ज्यादा वक्त नहीं बिता पाए लेकिन मैंने सोचा कि अगली बार पूरे सप्ताहंत के लिए इधर ही आया जायेगा। रानीखेत से रामनगर गूगल में सौ किलोमीटर भी नहीं था और मैं राकेश भाई को उत्साहित होकर बता रहा था कि पाँच बजे तक तो हम रामनगर पहुँच जायेंगे। उसके बाद दोस्त के साथ एक दो घंटे बिताएंगे और फिर दस बजे करीब बस पकड़ कर दिल्ली के लिए चल देंगे। राकेश भाई आश्चर्यजनक रूप से उतने उत्साहित नहीं लग रहे थे। उस वक्त मुझे यह अजीब लगा था लेकिन बाद में पता लगा कि वो इन मामलों में ज्यादा ज्ञानी थे।
रानीखेत स्टेशन के नजदीक बस रुकी तो हमने नीचे उतरने का मन बनाया। हमारा इरादा था कि थोड़ी दूर इधर उधर टहला जाए क्योंकि मुझे लग रहा था कि बस जल्द ही चल देगी। फिर भी मैंने ड्राईवर साहब से एक बार बात कन्फर्म करने के लिए पूछा तो उन्होंने जो कहा उसे सुनकर मुझे पहला झटका लगा। ड्राईवर साहब ने हमे बताया कि रानीखेत में गाड़ी एक घंटे रुकेगी। यह सुनते ही मन में एक ध्वनि उत्पन्न हुई थी जिसके मायने थे – लग गये लोटे!!
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सफर के दौरान खींचे गये कुछ चित्र- यात्री, घर, दुकान, बलखाती सड़कें और पहाड़ियाँ |
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पहुँचने वाले हैं रानीखेत |
चुरकाणी, रानीखेत और सस्ते समोसे
ड्राईवर साहब तो अपनी बात कहकर उतर गये। हम सदमे में आ गये। ड्राईवर साहब के मुताबिक अब गाड़ी ढाई बजे से पहले कहीं नहीं चलने वाली थी। इससे रामनगर वाला प्लान खटाई में पड़ सकता था। फिर भी मैंने मन को समझाया कि अगर ढाई बजे भी चले और तीस की स्पीड से चले तो छः बजे तक पहुँच जायेंगे। कम से कम एक दो घंटे मिल ही लेंगे। यह सोच मैंने खुद को दिलासा दिया। अब यहाँ रुकना ही था तो हमने भी उतरने का विचार बना दिया। बाहर धूप खिली हुई और मैं सोच रहा था कि दो दिन पहले हम इधर ही थे। थोड़ी देर हम धूप सेंकते रहे।
जहाँ सड़क पर हम खड़े थे उसके दूसरे तरफ एक दुकान थी जहाँ लिखा हुआ था कि उधर भात और चुरकानी मिल रही थी। मैंने राकेश भाई से उसे खाने के विषय में पूछा तो उन्होंने मना कर दिया। मुझे भी भूख लगी नहीं थी। वैसे चुरकानी होता बड़ा स्वादिष्ट है। भट्ट नाम की दाल से यह बनता है। अब चुरकानी तो खानी नहीं थी इसलिए चाय और समोसे से ही मैंने काम चलाया। चाय समोसा निपटाकर देखा कि अभी हमारे पास काफी वक्त था तो हम रानीखेत के बाज़ार घूमने लगे। थोड़ा इधर उधर चले और फिर एक एक दुकान में घुसकर राकेश भाई ने चाय और समोसे खाए। मैंने एक चाय ही पी। इस दुकान में रोचक बात यह थी कि समोसे छः रूपये के मिल रहे थे। आगे स्टेशन पर मैंने समोसे थोड़े महंगे ले लिए थे लेकिन कोई बात नहीं उसमें हमे छोले तो मिले थे। ऐसे ही टहलते टहलते हमने वक्त काटा और बस में सवार हुए।इधर उधर टहलने के दौरान मेरे दिमाग मके रामनगर ही उमड़ घुमड़ रहा था और यही कारण था कि हम भले ही रानीखेत मार्किट घूमते रहे लेकिन मैंने फोटो एक भी नहीं लिया। वैसे अब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि अगर उस दिन रामनगर की योजना नहीं बनाई होती तो हम रानीखेत घूम सकते थे। एक बजे तो हम पहुँच गये थे। दिल्ली की बस का पता कर सकते थे और उस हिसाब से घूमने का प्लान बना सकते थे। लेकिन चलो कोई नहीं। हर यात्रा में सम्भावना तो काफी रहती हैं लेकिन हर सम्भावना फलित थोड़े न हो पाती हैं।
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छोले समोसे, चाय और किताब |
शिमला के भूत, छोड़े पकौड़ी और ड्राईवरी दुनिया
ढाई बजे बस में बैठे और बस का सफर शुरू हुआ। आगे का बस का सफर यूँ ही चलता रहा। घुमावदार सड़के आती रही और हम बढ़ते रहे। बस अपनी मंथर गति से चलती रही और मेरी दोस्त से मिलने की उम्मीद कम होती रही। जब यह बात मैंने राकेश भाई को बताई तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि मुझे तो पहले से ही पता था कि ऐसा होगा। गूगल वाला वक्त तभी लागू होता जब हम अपनी गाड़ी में होते। पब्लिक ट्रांसपोर्ट से यात्रा करने की यही दिक्कत है कि वक्त ज्यादा लगता है। उनकी बात सही तो थी लेकिन मुझे लगता है कि सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करने से हमे काफी कुछ नये अनुभव भी हो जाते हैं। ऐसे ही अनुभव अभी मुझे होने वाले थे। मैं दोस्त को कह दिया था कि अब मिलना न हो पायेगा क्योंकि हम देर से ही पहुँचेंगे। लेकिन अब मैं कर क्या सकता था।
मैं अब किंडल पर
घोस्ट स्टोरीज ऑफ़ शिमला हिल्स नामक पुस्तक पढ़ रहा था। यह पुस्तक मिनाक्षी चौधरी जी ने लिखी है और इसमें उन्होंने शिमला में अपने प्रवास के दौरान पता चलने वाले किस्से साझा किये हैं। उन्होंने लोगों से पूछ पूछकर इन किस्सों को इकट्ठा किया था और अब किताब की शक्ल में इन्हें प्रकाशित किया था। रोचक किस्सों का यह संग्रह है। हमारा सफर चलता जा रहा था। गाड़ी भागती जा रही थी। और मैं बस में भूतिया किस्से पढ़ते हुए कल्पना के घोड़े दौड़ा रहा था। मैं यह सोच रहा था कि क्या ऐसा मुमकिन है कि बस में कोई भूत मौजूद हो। क्या ऐसा होना मुमकिन है कि बस को कोई भूत चला रहा हो? क्या ऐसा होना मुमकिन है कि हम जिस रास्ते से सफर कर रहे हैं उधर भूतों का साया हो और कोई भूत लिफ्ट लेने के लिए रुके और बस में दाखिल हो जाये। ऐसे ही ऊट पटांग ख्याल मेरे दिमाग में आ रहे थे कि अचानक हमे रास्ते में एक बस रुकी हुई दिखाई दी। मेरे दिमाग में जो पहला ख्याल कौंधा वो था – भूतहा बस। बस खाली लग रही थी और उसके बगल में दो व्यक्ति खड़े थे। अन्धेरा होने वाला था। जहाँ बस थी उस सड़क के दोनों तरफ जंगल थे और मुझे लग रहा था कि उन दोनों व्यक्तियों के प्रेत होने की सम्भावना काफी ज्यादा है। और फिर बस उन दो व्यक्तियों के सामने रुक गयी। मैं साँस थामे उनके बस में दाखिल होने का इन्तजार करने लगा।
उनमें से एक व्यक्ति बस में चढ़ गया। अँधेरा होने को था लेकिन मैं इतना तो देख सकता था कि वह व्यक्ति भूत नहीं था। मेरी साँस में साँस आई। फिर मुझे लगा कि वो मेरे मन में चल रहे ख्याल पढ़ लेगा तो मैंने उससे नजर फेर दी और फिर भूतहा किस्सों में खो गया। अब उधर ही भूत मिलने की ज्यादा सम्भावना थी।
वह व्यक्ति आकर ड्राईवर के बगल में मौजूद एक लम्बी सीट थी उसमें बैठ गया। वहाँ बैठकर पता चला कि वह भी ड्राईवर साहब ही थे जिनकी बस खराब हो गयी थी। वह अब शहर जा रहे थे ताकि उधर से किसी मेकानिक को लेकर आयें और अपनी बस चालू करवा सकें। उन्होंने अपने यात्रियों को किसी और की बस में स्थानानात्रित करवा दिया था और बस में कन्डक्टर को छोड़ अब मदद लेने जा रहे थे।
इसके बाद बस साढ़े पाँच बजे करीब एक जगह रुकी थी जहाँ बस थोड़ी देर ठहरी थी और सबने नाश्ता किया था। मैंने और राकेश भाई ने भी आखिरकार छोला पकोड़ी और चाय का स्वाद लिया था। जाते वक्त यह खाना रह गया था तो इस समय कोरम पूरा हो गया था। चूंकि रात घिर आई थी तो ठंड भी वातावरण में बढ़ गयी थी। ऐसे में गरमा गर्म छोले पकौड़ी और चाय पीने में मजा आ गया था। इसके साथ मिलने वाली हरी चटनी ने तो हमारा दिल ही जीत लिया था। नाश्ता निपटाने के बाद बस आगे बढ़ गयी।
बस चल रही थी और दोनों ड्राईवर साहब के बीच बातें लगातार चली जा रही थी। जब तक अँधेरा नहीं था तब तक मैंने अपना ध्यान किंडल पर मौजूद किताब में ही लगाया था लेकिन अब चूंकि अँधेरा था तो किंडल पढ़ा नहीं जा सकता था। ऐसे में ड्राईवर साहब और नये ड्राईवर साहब के बीच की बातें मेरे ध्यान का मरकज बनी हुई थी।
यह बातें रामनगर आने तक चली थी। इन बातों की शुरुआत गाड़ी खराब होने के कारण से हुई थी जिसे ड्राईवर साहब ने बताया कि गाड़ी उन्हें काफी परेशान कर रही है। फिर उनकी बातें सवारियों की कम होती संख्या पर गयी जहाँ उन्होंने दो चार लोगों का नाम बताकर कहा कि हालत ऐसे हो गये हैं कि उनकी गाड़ी में कुछ चार पाँच या ज्यादा से ज्यादा दर्जन भर सवारी ही थे। इसी बात को बढाते हुए उन्होंने बताया कि कैसे कम सवारियों के चलते एक व्यक्ति को अपनी बस बेचनी पड़ी थी। सवारियों की बातें करने के बाद वो बस वालों के किसी संगठन के विषय में बात करने लगे और उससे मुझे पता चला कि कैसे उधर अच्छी सवारियों वाली रूट में बसे लगाने के लिए काफी राजनीती होती है। मुझे उनकी दुनिया में इस तरह झांकना बेहद अच्छा लग रहा था। उस वक्त मैं सोच रहा था कि अगर हम अपने पर्सनल वाहन में होते तो यह सब मुझे कैसे पता चलता। इसलिए सार्वजनिक यातायात मुझे पसंद है वो हमे दूसरों से काटता नहीं है। कई जीवनों के वृत्त में हम चाहे अनचाहे दाखिल हो जाते हैं जो कि हमारे अनुभव में शामिल हो जाता है। जैसे कि जब मैं यह वार्तालाप सुन रहा था तो अचानक से मुझे ड्राईवर कन्डक्टर लोग मनुष्य लगने लगे थे। वरना सफर के दौरान वो बस में लगे एक पुर्जे से अधिक शायद न लगे हो। मैं उससे हँसता बतियाता जरूर हूँ लेकिन उनकी इस दुनिया में झाँकने की मैंने कोशिश नहीं की लेकिन जब आज अनचाहे इस वार्तालाप के टुकड़े मेरे कान में पड़े थे तो इनकी रोचकता ने मुझे इस दुनिया की तरफ आकर्षित किया था। है न रोचक बात।
बस के आगे के सफर ऐसे ही कटा। एक और यात्री बीच में चढ़े और वो बाइक वालो लापरवाही से बाइक चलाने को लेकर बात करने लगे और फिर काफी देर तक बाइक्स और उन पर बैठे बिगड़े अमीरजादों पर बात होती रही।
एक तरफ मेरे कान ये वार्तालाप सुन रहे थे वहीं दूसरी तरफ मेरी आँखें खिड़की से बाहर झाँकते हुए बगल से भागते हुए पेड़ों को देख रही थी। यह मेरे द्वारा पहले पढ़े जा रही उस किताब का असर था कि मेरे दिमाग में यह उम्मीद थी कि इन पेड़ों और जंगलों के बीच मौजूद कोई साया मुझे दिखाई दे लेकिन ऐसा न होना था और न हुआ।
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छोले पकौड़ी खालो फ्रेंड्स- चटनी बड़ी स्वाद थी |
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राकेश भाई मुआयना करते हुए |
रामनगर, दिल्ली की बस और सफर का अंत
आखिरकार सात बजे के करीब हम लोग रामनगर स्टेशन पहुँचे। हम उतरे और फिर जिधर दिल्ली के लिए बसें लगी थी उधर चल पड़े। वहीं पर परिसर में हम लोग फ्रेश हुए और दिल्ली की बस के आने का इंतजार करने लगे। जहाँ बसें खड़ी होती थी वहीं पर एक ढाबा नुमा जगह थी जहाँ पर मैंने एक चाय और एक बन ओम्लेट खाया। राकेश भाई ने कुछ खाना स्वीकार न किया।
नाश्ता निपटाकर हमने थोड़ी देर ही इंतजार किया था कि बस आ गयी थी। बस के लिए काफी भीड़ भाड़ थी और हमे ये नहीं पता था कि आखिरी बस कब आयेगी तो हमने इसी बस में सीट घेरने का मन बना लिया और हमे आखिरकार सीट मिल भी गयी।
रामनगर से दिल्ली का सफर साधारण रहा। बीच में बस रुकी थी लेकिन हम लोग उठे नहीं थे। मेरी नींद टूट जरूर रही थी लेकिन फिर मैं सो भी जा रहा था। ऐसे ही नींद के झोंकों के बीच कब हम लोग दिल्ली आनन्द विहार पहुँचे हमे पता भी न लगा। वहाँ पहले एक एक कप चाय का हमने पिया और उसके पश्चात एक गाड़ी बुक करके अपने घर गुरुग्राम पहुंच गये। चार बज रहे थे और नींद आ रही थी। राकेश भाई और मैंने दोनों ने सोने का फैसला किया। राकेश भाई सोमवार को इधर ही रुकने वाले थे।
हम लोग आठ बजे तक सोये। फिर उठकर मैं ऑफिस के लिए तैयार हुआ और राकेश भाई ने कहा चूंकि वो फ्रेश महसूस कर रहे हैं तो वो भी अपने सफर पर निकलना चाहते हैं। उनकी बात भी सही थी क्योंकि उन्हें अभी सूरत तक जाना था। उनका कहना था कि अब उन्हें नींद नहीं आने वाली है और यहाँ ठहरने से बेहतर वो राजस्थान तक का सफर तय कर लेंगे। ऐसे में अगले दिन उन पर लोड कम आएगा। उनकी बात में दम था और इस कारण मैंने उन पर रुकने के लिए दबाव भी नहीं डाला।हम लोग तैयार हुए और फिर नानी के यहाँ चले गये। हम लोग उनकी बाइक वहीँ छोड़कर गए थे। मुझे भी ऑफिस जाना था और उन्हें भी आगे तो हमने उनकी बाइक उठाई और फिर एक दूसरे से विदा ली।
एक सफर का अंत जरूर हो रहा था लेकिन इसी दौरान मेरे मन में अगले सफर के प्लान बनने लगे थे।
समाप्त
सही कहा आपने राकेश भाई इन सब बातों के ज्यादा ज्ञानी है जो उन्हें पता था कि पहाड़ो में कही पहुचने का भरोसा नहीं रहता है….दिन भर की यात्रा को अच्छा लिखा शिमला के भूतों local व्यंजन समोसे चाय सबके साथ….मिलते है अगली यात्रा पे
जी राकेश भाई काफी अनुभवी घुमक्कड़ हैं…. उनके साथ घूमना काफी कुछ सिखा देता है… अगली यात्रा में जल्द ही मिलते हैं….आभार…..